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________________ ( १२४ ) देशेन दृष्ट इह यः स मया न दृष्टो देशेन चेति विशदव्यवहार एषः । संयोगद्विरहवन्ननु देशभेदादेकत्र देशिनि विरुद्धनिवेशमाह ।। ५३ ।। जिस वस्तु को एक भाग में देखा उसी को अन्य भाग में नहीं देखा - ऐसा स्पष्ट व्यवहार लोक में देखा जाता है और इस व्यवहार के कारण ही भागभेद से एक ही वस्तु में दर्शन और अदर्शन इन दो विरुद्ध धर्मों का समावेश स्वीकार किया जाता है और इस प्रकार एक वस्तु में विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता की सिद्धि होती है, यदि यह कहा जाय कि एक वस्तु का दर्शन और अदर्शन उक्त व्यवहार का विषय नहीं है अपितु वस्तु के एक भाग का दर्शन और अन्य भाग का अदर्शन उक्त व्यवहार का विषय है अतः उसके आधार पर एक वस्तु में दर्शन और अदर्शनरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश नहीं सिद्ध हो सकता, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर एक वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव को भी सिद्धि नहीं होगी, कहने का तात्पर्य यह है कि 'शाखा में वृक्ष कपिसंयुक्त है और मूल में कपि से असंयुक्त है' इस व्यवहार के विषय में भी यह कहा जा सकेगा कि यह व्यवहार शाखा में कपिसंयोग और मूल में कपिसंयोगाभाव का प्रतिपादन करता है न कि शाखा और मूल की अपेक्षा वृक्ष में उन दोनों के अस्तित्व का प्रतिपादन करता है, फलतः इस व्यवहार के आधार पर वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव की सिद्धि न हो सकने के कारण कपिसंयोग की अव्याप्यवृत्तिता अर्थात् कपिसंयोगाभाव के साथ एक आश्रय में रहना न सिद्ध हो सकेगा। इस लिये यह निर्विवादरूप से मानना होगा कि जिस प्रकार एक ही वृक्ष में शाखा, मूल आदि अवच्छेदकभेद से कपिसंयोग तथा कपिसंयोगाभाव आदि परस्पर विरोधी धर्म रह लेते हैं उसी प्रकार देश, काल, पुरुष आदि अपेक्षाभेद से एक ही वस्तु में दर्शन-अदर्शन आदि परस्पर विरोधी धर्म भी रह सकते हैं, अतः वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता अत्यन्त युक्तिसंगत है। यद्गृह्यते तदिह वस्तु गृहीतमेव तद्गृह्यते च न च यत्त गृहीतमास्ते । इत्थं भिदामपि स किं न विदांकरोतु यः पाठितो भवति लक्षणभङ्गजालम् ।। ५४ ॥ जो वस्तु जिस समय ज्ञायमान होती है अर्थात् जानी जाती है उस समय वह वस्तु नियमेन ज्ञात हो जाती है, अर्थात् जिस समय किसी वस्तु का ज्ञान Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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