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________________ ( १२३ ) एकत्वमुल्लसति वस्तुनि येन पूर्णे ज्ञानाप्रहादिकृत दैशिकभेद एव ।। ५२ ।। हे भगवन् ! आपके मतानुसार बाह्य अथवा आन्तर कोई भी वस्तु स्याद्वाद की परिधि को लांघ कर सत् वस्तु के लक्षण शबलता अर्थात् अनेकान्तरूपता का परित्याग कदापि नहीं करती और इसी कारण पूर्णं अर्थात् अनन्तधर्मात्मक वस्तु में ज्ञान, अज्ञान आदि धर्मों द्वारा जो किसी न किसी प्रकार परस्पर विरुद्ध हैं, अव्याप्यवृत्ति भेद की सिद्धि भी होती है और साथ ही एकत्व अर्थात् अभेद भी किसी न किसी प्रकार बना रहता है । दृष्टि में किसी वस्तु का श्लोक का तात्पर्य यह है कि जैनतत्त्वदर्शियों की कोई एक ही नियत रूप नहीं होता किन्तु प्रत्येक वस्तु विरुद्ध अविरुद्ध अनन्त धर्मो का एक अभिन्न आयतन होती है। उनका कथन यह है कि प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते हैं, एक रूप तो स्थायी होता है जिसे धर्मी, सामान्य अथवा द्रव्य कहा जाता है और दूसरा रूप आगमापायी आने जाने वाला होता है जिसे धर्म, विशेष अथवा पर्याय कहा जाता है, ये दोनों ही रूप परस्पर में न तो सर्वथा भिन्न ही होते और न सर्वथा अभिन्न ही होते, किन्तु कथंचित् भिन्न भी होते हैं और कथंचित् अभिन्न भी होते हैं। अतएव वस्तु का स्थायी रूप अर्थान् द्रव्यभाग पर्यायों से अभिन्न होने की दृष्टि से आगमापायी होता है और आगमापायी रूप अर्थात् पर्याय स्थायीरूप द्रव्य से अभिन्न होने की दृष्टि से स्थायी होते हैं, फलतः वस्तु अपने किसी भी रूप से न तो सर्वथा स्थिर होती है और न सर्वथा अस्थिर ही होती है । वस्तु के पर्याय भी इने गिने नहीं होते अपितु अनन्त होते हैं, सच बात तो यह है कि उस वस्तु भिन्न सारा जगत् उस वस्तु का पर्याय होता है । अन्तर केवल इतना ही होता है कि जगत् के जो पदार्थ उस वस्तु में अश्रित होते हैं वे उसके स्वपर्याय कहे जाते हैं और जो उसमें आश्रित न हो किसी अन्य वस्तु में आश्रित होते हैं वे उसके पर पर्याय कहे जाते हैं तथा जगत् के जो पर्याय कहीं भी आश्रित नहीं होते वे उसके अनाश्रित पर्याय कहे पदार्थ उस वस्तु के पर्याय होते हैं, द्रव्य तथा कारण प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक अथवा अनन्त पर्यायों में सूत्रवत् अनुस्यूत रहने वाले बनी रहती है । वस्तु की यह एकरूपता तथा अनुसार अपेक्षाभेद से उपपन्न होती है और इस अपेक्षाभेद के सूचनार्थं ही किसी वस्तु के स्वरूप का वर्णन करते समय उसके स्वरूपबोधक प्रत्येक शब्द के साथ 'स्यात्' पद का प्रयोग किया जाता है । से प्रकार जगन् के सारे जाते हैं, इस पर्याय में सर्वात्मक द्रव्य की दृष्टि से एकात्मक भी अनन्तरूपता स्याद्वाद सिद्धान्त के Aho ! Shrutgyanam कथंचित् अभेद होने के होती है तथा साथ ही
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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