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________________ ( ११५ ) उसका कोई अंश बचेगा ग्रहण कर सके । फलतः इस पर बाह्यार्थवादी का कथन यह है कि परमाणु के सम्बन्ध में जो उपर्युक्त शङ्कायें उपस्थित की गयी हैं वे विज्ञानवाद में भी उपस्थित हो सकती हैं । जैसे स्वतन्त्र रूप से अनेक वस्तुओं को ग्रहण करने वाले समूहालम्बन ज्ञान के विषय में यह प्रश्न हो सकता है कि उक्त प्रकार का ज्ञान अनेक वस्तुओं को अंशतः ग्रहण करता है अथवा पूर्णरूयेण अर्थात् सर्वात्मना ग्रहण करता ? अंशतः ग्रहण मानना सम्भव नहीं है क्योंकि ज्ञान में कोई अंश नहीं होता । सर्वात्मना ग्रहण मानना भी सम्भव नहीं है क्योंकि एक ज्ञान जब किसी एक वस्तु को ग्रहण करने में सर्वात्मना व्यापृत होगा तब उस एक ही वस्तु के ग्रहण में उसका सारा स्वरूप समाप्त हो जायगा, फिर ही नहीं कि जिसके द्वारा वह दूसरी वस्तु का भी 'समूहालम्बन ज्ञान का अस्तित्व ही मिट जायगा । यदि विज्ञानवादी इन शङ्काओं का समाधान इस प्रकार करेंगे कि ज्ञान के बारे में अंश तथा पूर्णता का विकल्प उठ ही नहीं सकता क्योंकि किसी समुदाय के भीतर आने वाले एक-एक व्यक्ति को उस समुदाय का अंश कहा जाता है और उसके भीतर आने वाले समस्त व्यक्तियों को पूर्ण कहा जाता है, अतः जो वस्तु समुदायात्मक हो उसी में अंश एवं पूर्णता का विकल्प उठ सकता है। ज्ञान तो समुदायात्मक वस्तु है नहीं, वह तो एक व्यक्ति है तथा उसका स्वरूप बड़ा विलक्षण है, इसलिये उसमें न तो उक्त विकल्प ही उठ सकता और न उससे अनेक वस्तुओं का ग्रहण होने में कोई विरोध ही हो सकता। तो इस प्रकार का समाधान बाह्यार्थवादी नैयायिक भी कर सकेंगे क्योंकि उनका परमाणु वा अवयवी भी कोई समुदायात्मक पदार्थ नहीं है किन्तु एक व्यक्ति है और उसका भी स्वरूप बड़ा विलक्षण है, अतः उसमें भी न तो अंश तथा पूर्णता का विकल्प उठ सकता और न एक परमाणु का अनेक परमाणुओं से तथा एक अवयवी का अनेक अवयवों से सम्बन्ध होने में कोई विरोध ही हो सकता । एक परमाणु में एक ही साथ पूरब पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, नांचे और ऊपर इन छ: दिशाओं से छः परमाणुओं के संयोग होते हैं, अतः संयुज्यमान परमाणु में अनिवार्य रूप से छ: अंश मानने होंगे, क्योंकि यदि उसमें अंशभेद की कल्पना न की जायगी तो अन्य परमाणुओं के साथ उसका सर्वात्मनैव संयोग मानना होगा । फलतः एक ही परमाणु के संयोग से उसका पूर्णरूपेण निगरण हो जाने के कारण अन्य परमाणु से उसका संयोग न हो सकेगा । और जब उसमें अंशभेद माना जायगा तब उसके विभिन्न अंशों द्वारा उसमें विभिन्न परमाणुओं के संयोग की उत्पत्ति हो सकेगी। इस प्रकार अंश की कल्पना Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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