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________________ ( ११४ ) जाने के भय से अनियत अनुपलम्भ को अभाव का ग्राहक न मान कर नियत अनुपलम्भ को ही अभाव का ग्राहक माना जाता है वैसे अतीन्द्रिय वस्तु मात्र के अस्तित्व का लोप हो जाने के भय से अयोग्य अनुपलम् को अभाव का ग्राहक न मान कर योग्य अनुपलम्भ को ही अभाव का ग्राहक माना जाता है । फलतः परमाणु का अनुपलम्भ योग्य अनुपलम्भ रूप न होने के कारण परमाणु के अभाव का साधक नहीं हो सकता । परपक्ष को दोषयुक्त ठहराने के दृढ़ अभिनिवेश से न्यायशास्त्र की उपर्युक्त युक्तियों का अवलम्बन कर बाह्यार्थभङ्गमूलक अनात्मवाद के खण्डन का जो यह प्रकार है, हे भगवन् महावीर ! वह आप के ही न्यायामृतमहोदधि के बिन्दु का उद्गार है। ___इस विषय में विज्ञानवादी योगाचार तया बाह्यार्थवादी नैयायिक की विमर्शपद्धति निम्न प्रकार है । विज्ञानवादी का कहना यह है कि परमाणुवों का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि यदि उनका अस्तित्व माना जायगा तो उनकी दो ही स्थितियाँ हो सकती हैं। एक तो यह कि उन्हें परस्पर में असम्बद्ध माना जाय और दूसरी यह कि उन्हें परस्परसम्बद्ध माना जाय । पर ये दोनों ही बातें सम्भव नहीं है, क्योंकि परमाणुओं को यदि परस्पर में असम्बद्ध माना जायगा तो भिन्न-भिन्न स्थानों में बिखरे हुये परमाणुओं को जैसे न तो घट, पट आदि संज्ञायें ही प्राप्त होती और न उनसे जलाहरण तथा शरीराच्छादन आदि कार्य ही होते वैसे ही एक स्थान में इकट्ठे हुये परमाणुओं को भी न वे संज्ञायें ही प्राप्त होंगी और न उनसे वे कार्य ही हो सकेंगे। इस त्रुटि के निवारणार्थ यदि उन्हें परस्पर में सम्बद्ध माना जायगा तो यह प्रश्न उठेगा कि एक परमाणु का दूसरे परमाणुओं से जो सम्बन्ध होगा वह अंशतः होगा अथवा पूर्णरूपेण अर्थात् सर्वात्मना होगा ? अंशतः सम्बन्ध मानना सम्भव नहीं है क्योंकि परमाणु में कोई अंश नहीं होता। सर्वात्मना सम्बन्ध मानना भी सम्भव नहीं है क्योंकि सर्वात्मना सम्बन्ध मानने पर एक परमाणु का अनेक परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता, कारण कि इस पक्ष में जब किसी एक परमाणु का दूसरे किसी एक परमाणु से सम्बन्ध होगा तब वह उस एक ही परमाणु में सर्वात्मना समा जायगा। फलतः अन्य परमाणुओं से सम्बन्ध होने के लिये उसका कुछ शेष ही न रह जायगा। और इस प्रकार जब परमाणुओं का एक दूसरे से सम्बन्ध ही न हो सकेगा तो उनकी कल्पना का कोई अर्थ ही न होगा। Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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