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________________ ( ६१ ) ज्ञेय और ज्ञान में अभिन्नजातीयता अर्थात् भिन्नजातीयता का अभाव हैं -- इस दूसरे पक्ष के साधनार्थ उक्त हेतुओं का प्रयोग करने पर उनमें अप्रयोजकत्व दोष होता है, क्योंकि सहोपलम्भ, ग्राह्यग्राहकभाव तथा प्रकाशमानता इन तीनों के प्रति अभिन्नजातीयता एवं भिन्नजातीयता ये दोनों ही समान हैं, अतः वे हेतु भिन्नजातीयतापक्ष में भी उपपन्न हो जाते हैं इसलिये वे ज्ञेय और ज्ञान की अभिन्नजातीयता के प्रयोजक नहीं हो सकते । ज्ञान सत्य है पर उसका विषय-ज्ञेय असत्य है - इस तीसरे पक्ष का साधन करने पर माध्यमिक के शुन्यवाद की आपत्ति खड़ी होती है, क्योंकि ज्ञेय को असत् मानने पर भी जिस प्रकार उसकी प्रतीति तथा उसके अन्य कार्यों का उपपादन किया जाता है उसी प्रकार ज्ञान को भी असत् मानने पर उसकी भी प्रतीति आदि का उपपादन किया जा सकता है, अतः ज्ञान का भी अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार जब उक्त तीनों ही पक्ष दोषग्रस्त हैं तब उनमें से किसी का भी अवलम्बन कर बौद्ध लोग नैयायिक को निरस्त नहीं कर सकते, हाँ, एक उपाय है जिसका अवलम्बन कर नैयायिक को पराजित किया जा सकता है, वह है स्याद्वाद का पादावलम्बन । बौद्ध यदि वस्तु की एकान्ततः ज्ञानरूपता और क्षणिकता का दुराग्रह छोड़ कर कथंचित् ज्ञानभिन्नता के साथ ज्ञानरूपता और स्थिरता के साथ क्षणिकता स्वीकार कर लें तो वस्तु को एकान्ततः ज्ञान से भिन्न तथा एकान्ततः स्थिर मानने वाले नैयायिक पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । धग्राह्ययोर्न भिदास्ति सहोपलम्भात् प्रातिस्विकेन परिणामगुणेन भेदः । इत्थं तथागतमतेऽपि हि सप्तभङ्गी संगीयते यदि तदा न भवद्विरोधः ॥ ३८ ॥ इस श्लोक से बौद्धमत में भी सप्तभङ्गी नय का सम्भव बताया गया है, श्लोकार्थं इस प्रकार है । जैनमत में सहोपलम्भविषयत्व अर्थात् नियमेन साथ ही उपलब्ध होना ज्ञान और ज्ञेय दोनों का साधारण धर्म है, किन्तु उनके पारिणामिक भाव उनके असाधारण धर्म हैं, क्योंकि द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि जो ज्ञेय के पारिणामिक भाव हैं वे ज्ञान के धर्म नहीं हैं और ज्ञानत्व, मतिज्ञानत्व आदि जो ज्ञान के पारिणामिक भाव हैं वे ज्ञेय के धर्म नहीं हैं, फलतः सहोपलम्भविषयत्वरूप साधारण धर्म की अपेक्षा ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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