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________________ ( ८४ ) ग्राहक हो जायगा और एक वस्तु का ज्ञाता सर्वज्ञ बन जायगा, अतः ज्ञान को अपने से अभिन्न वस्तु का ही ग्राहक मानना चाहिये और जिस ज्ञान से जिस वस्तु का विदित होना अनुभव सिद्ध है उसका उसी वस्तु से अभेद मानना चाहिये, जिससे एक ज्ञान को समस्त वस्तुओं को ग्राहकता तथा एक वस्तु के ज्ञाता को सर्वज्ञता को आपत्ति न हो। तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि "ज्ञान यदि अपने से भिन्न वस्तु का ग्राहक होगा तो प्रत्येक ज्ञान सब वस्तुओं का ग्राहक हो जायगा" इस अतिप्रसङ्ग का ज्ञान यदि माना जायगा तो "ज्ञान अपने से अभिन्न वस्तु का ही ग्राहक होता है भिन्न का नहीं" इस नियम का इस अतिप्रसंगज्ञान में ही भंग हो जायगा, कारण कि यह अतिप्रसंगज्ञान स्वयं एक है और उसके विषय अनेक हैं अतः यह अपने से भिन्न वस्तुओं का ही ग्राहक है। और यदि उक्त अतिप्रसंग का ज्ञान न माना जायगा तो ज्ञान से भिन्न वस्तु को ज्ञान का ग्राह्य मानने में भी कोई दोष न होगा। फलतः जो वस्तु जिस ज्ञान से ग्राह्य होती है वह उससे अभिन्न होती है यह नियम न बन सकेगा और इसीलिये ग्राह्यत्व हेतु से ज्ञेय में ज्ञान के अभेद का साधन नहीं किया जा सकता। ( ३ ) प्रकाशमानत्व-प्रकाशमानत्व शब्द में प्रकाश शब्द का ज्ञान अर्थ करने पर उसका अर्थ ज्ञानसम्बन्ध अथवा ज्ञानतादात्म्य होगा। पर ये दोनों ही अर्थ ज्ञेय और ज्ञान की एकता का साधन करने में समर्थ नहीं हो सकते। ज्ञानसम्बन्ध से ज्ञानरूपता तब सिद्ध हो सकती है जब यह नियम माना जाय कि जिस वस्तु में जिसका सम्बन्ध होता है वह वस्तु तद्रूप होती है, पर यह नियम नहीं माना जा सकता क्योंकि यह नियम मानने पर पण्डित पुत्र के अपठित पिता में पण्डतरूपता और अन्धे पुत्र के चक्षुष्मान् पिता में अन्धेपन की आपत्ति होगी। इसके साथ ही यह भी विचार उपस्थित होता है कि ज्ञेय के साथ ज्ञान का सम्बन्ध भी क्या हो सकता है ? यदि उनमें ग्राह्यग्राहकभाव सम्बन्ध माना जाय तो उससे इष्ट की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि ज्ञेय और ज्ञान में भेद मानने पर भी उनमें ग्राह्यग्राहकभाव मानने में कोई आपत्ति वा अनुपपत्ति नहीं होती। ज्ञेय को विषय और ज्ञान को विषयो मानकर उनमें विषयविषयिभाव सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्यों कि ज्ञेय और ज्ञान की भिन्नता का विघटन किये बिना ही उनमें विषयविषयिभाव भी उपपन्न हो सकता है । Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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