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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (५१५) तत्र चूर्ण क्षिपेदेलालवंगमरिचानि च । नालिकरं सकपूरं चारबीजान्यनेकधा ॥ १०३॥ घृताक्तसमिता पुष्टरोटिका रचिता ततः। तस्यान्तापूरणं तस्य कुान्मुद्रां हां सुधीः १०४ सर्पिषि प्रचुरे तान्तु सुपचेत्रिपुणो जनः । प्रकारज्ञैः प्रकारोऽयं संयाव इति कीर्तितः ॥१०॥ मैदा और घी मिलाय रोटी बनाकर घोमें सेंक लेरे, सिन्नेपर कूट ने और छान ले , पश्चात स्वच्छ बुरा मिलावे, फि इलायची, लोंग, काली मिरच, नारियल की मींग और कपुर, चिरोंजी डाले। फिर मोवन पडी हुई मैदाकी गेटीसी बेल लेवे, पश्चात उस चूर्णको उसके भीतर भरे और मजबूत मुख बंद करदेवे, चतुर पुरुष, इसको घोमें भली भांति सेंकलेवे, सिकने पर इसको संयाव ( गुजिया) कहते हैं। इस संयावके गुण मठके सदृश ही जानने ॥ १०२.-१०५ ॥
____ अथ कर्पूरनालिका। घृताठ्यया समितया लम्बं कृत्वा पुटं ततः। लवंगोल्वणकर्पू युतया सितयाऽन्वितम् ॥ १०६ ॥
पचेदाज्येन सिद्धैषा ज्ञेया कर्पूरनालिका । . संयावसहशी ज्ञेया गुणैः कर्पूरनालिका ॥ १०७॥ - मोक्न पडी हु मैदाकी लोई को बेल कर लम्बा सुपुट बनावे, फिर मोंग, मिरच, कपूर और खांड मिलाकर उसके भीतर भरे और मुख बंद करके घृत में सेंक लेवे.इसको कर्पूरनालिका कहते हैं, इसमें संवायके सदृश गुण हैं ॥ १०६ ॥ १०७॥
अथ फेनिका (फेनी)। समिताया घृनाढयाया वर्ति दीर्घा समाचरेत् । तास्तु सन्निहिता दीर्घाः पाठस्योपरि धारयेत १०८
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