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( २२२ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
मैदानत्वं बलहानियां विष्टभतां नेत्रगान्कुष्टान् । तथैवमालवण पूर्विकां चकरोतिता पी जम शुद्धमेतत् ॥ ६४ ॥
स्वच्छ, माक्षिक, तापीज, मधुमाक्षिक, ताप्यक, मादिक धातु और मधुरधातु यह सोनामक्खीके नाथ है। सोनामक्खी सुवर्णकेसे वर्णवाली होनेके कारण सोनामक्खी कही जाती है, किञ्चित् स्वर्णके गुणांवाली होनेसे इसे स्वर्णकी उपधातु कहते हैं । यद्यपि कुछ लोग स्वर्णके प्रभामें इसका प्रयोग करते है परन्तु इसमें स्वर्ण से बहुत न्यून गुण हैं । तथा गंधक आदि अन्य द्रव्योंके संसर्गले अन्य गुणोंका इसमें समावेश है । सोनामक्खी - मधुर, तिक्त, पृष्य, रायन, नेत्रोंको हितकारी तथा वस्तिपीडा, कुष्ठ, पाण्डु, प्रमेह, विषविकार, उदररोग, अर्श, शोथ. खुजली और त्रिदोषको नाश करनेवाली है । ग्रशुद्ध सोनामक्खीके खानेसे अग्निमांद्य, बनकी हानि, अत्यन्त बिष्टंभ : नेत्ररोग, कुष्ठ, गण्ड-माला आदि दारुण रोग उत्पन्न होते हैं ॥ ५८--६४ ॥
तारमाक्षिकम् । तारमाक्षिकमन्यत्तु तद्भवेद्रजतोपमम् । किंचिद्रजत साहित्यात्तारमाक्षिकमीरितम् ॥ ६५ ॥ अनुकल्पतया तस्य ततो हीनगुणं स्मृतम् । न केवलं रूप्यगुणा वर्तते तारमाक्षिके ॥ ६६ ॥ द्रव्यांतरस्य संसर्गात्सत्यन्येऽपि गुणा यतः ॥ पूर्ववत् ॥
तारमाक्षिक और रजतोरम यह रूपामाखी के नाम हैं। किंचित रजतका वर्ण होनेसे इसको रूपामाखी कहते हैं । यह रजतसे अत्यन्त दीन गुणोंवाली है । यद्यपि कुछ लोग इसका रजतके अभाव में प्रयोग करते हैं किन्तु इसमें केवल रजतके गुण नहीं हैं: जिन अन्य द्रव्यों का संसर्ग इसमें है उनके गुण भी इसमें हैं। इसके गुण प्रायः स्वर्णमाक्षिक के गुणों से मिलते हैं ॥ ६५ ॥ ६६ ॥
तुत्यम् ।
तुत्थं विन्नकं चापि शिखिग्रीवं मयूरकम् ॥ ६७ ॥