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(२२० ) ram काश निघण्टुः भा. टी. । तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकं नैति भूमि कृष्णांगःस्यात्सजलचणकः कतिलोहं तदुक्तम् ५१ ॥ गुल्मोदरार्शःशुलाममा मवातं भगंदरम् । कामलाशोथ कुष्ठानि क्षयं कांतमयो हरेत् ॥ ५२॥ प्लीहानमम्लपित्तं च यच्चापि शिरोरुजम् । सर्वान् रोगान्विजयते कांतलोहं न संशयः ॥ २३ ॥ बलं वीर्य्यं वपुः पुष्टिं कुरुतेऽग्निं विवर्द्धयेत् ॥ ५४ ॥
जिस लोहके पात्र में पानी भर कर उसमें तेलकी बून्द डाली हुई न फैले, हींग अपनी गंधको त्याग देवे, नीमका पत्र कडवापन छोड दे, दूध उबल कर शिखराकार खड़ा हो जाय पर नीचे न गिरे, तथा जल भर कर चने डालने से चने काळे दिखाई देने लगें, उस पाववाले लोहको कांवलोह कहते हैं । कान्त लोह -गुल्म, उदररोग, अश, आमशूल, आमवात, भगन्दर, कामला, शोथ, कुष्ठ, क्षय, प्लीहा, अम्लपित्त, यकृत विकार और शिरोरोग इन सबको दूर करता है । कान्तलोह बल, वीर्य्य और धरीरको पुष्ट करता है, जठराग्निको बलवान करता है इसमें संदेह नहीं ॥ ५१-५४ ॥
मडूरम् ।
धमायमानस्य लोहस्य मलं मंडूरमुच्यते । लोहसिंहानिका किट्टी सिंहानं च निगद्यते ॥ ५५ ॥ यल्लोहं यद्गुणं प्रोक्तं तत्किमपि तद्गुणम् ।
भट्टी में धमाए हुए लोहका जो मल गिरता है उसको मण्डूर कहते हैं इसके छोह सिंहानिका, किट्टि, सिंहान मादि नाम हैं । लोहभस्म के नो गुण हैं लोडकिडकी भस्म के भी वही गुण हैं ॥ ५५ ॥
सप्तोपधातवः ।
सप्तोपधातवः स्वर्णमाक्षिकं तारमाक्षिकम् ॥ ५६॥
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