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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
कर्चूरः । कर्पूरो वैधमुख्यश्च द्राविडः काल्पिका शटी | कर्पूरो दीपनो रुच्यः कटुकस्तिक्त एव च ॥ ९५ ॥ सुगन्धिः कटुपाकः स्यात्कुष्टाशत्रणका सनुत् | उष्णो लघुई रेच्छूवास गुल्मवातकफकृमीन् ॥ ९६ ॥
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कर्पूर, वेघमुख्य, द्राविड, काल्पिक, शटी यह कचूरके संस्कृत नाम हैं। इसको हिन्दी में कचूर अथवा काली हल्दी, फारसीमें जरंवाद, अंग्रेजीमें Long zedoory कहते हैं ।
कर- दीपन, रुचिकारक, कटु, तिक्त, सुगन्धयुक्त, कटुपाकी, हलका, गरम तथा कुष्ठ, अर्श, व्रण, कास, श्वास, गुल्म, वात, कफ और कृमि-, योंको हरता है ॥ ९५ ॥ ९६ ॥
मुरा ।
सुरा गन्धकुटी दैत्या सुरभिस्तालपर्णिका । मुरा तिक्ता हिमा स्वाद्वी लघ्वी पित्तानिलापहा । ज्वरा सृग्भूतरक्षोघ्नी कुष्ठकासविनाशिनी ।
मुरा, गन्धकुटी, दैत्या, सुरभि और तालपर्णिका यह मुशके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दी में मुरा कहते हैं ।
मुरा-तिक्त, शीतल, मधुर, हलकी, पिस और वासको दूर करनेवाली, कुष्ठ और कासको नष्ट करनेवालि तथा ज्वर, रक्तविकार और भूत, राक्षसोंकी पीडाको हरनेवाली है ॥ ९७ ॥
पलाशी ।
शटी पलाशी षड्ग्रन्था सुव्रता गन्धमूलका ॥ ९८ ॥ गन्धारिका गन्धवपुर्वधूः पृथुपलाशिका । भवेद् गन्धपलाशी तु कषाया ग्राहणी लघुः ॥९९॥