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र ६२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. कृष्णं गुणाधिकं तनु लोहवद्वारि मजति । अगुरुप्रभवः स्नेहः कृष्णागुरुसमः स्मृतः ॥ २३ ॥ पगुरु, प्रवर, लोह, राजाह, योगज, वशिक, कृमिज, कृमिजग्ध तथा अनार्यक यह पगुरुके संस्कृत नाम हैं । इसको हिन्दी में अगर अथवा काली अगर, फारसीमें कश बेबवा और अंग्रेजी में Eagal woodकहतेहैं। - अगर-गरम, कटु, त्वचाको उत्तम करनेवाला, तिक्त, तीक्ष्ण, पित्तव. धक हल्की और कर्मरोग, अक्षिरोग, शीत, वात तथा कफको दूर करती है। काले रंगकी अगर अधिक गुणोंवाली होती है और वह जनमें लोहेकी तरह डूब जाती है । अगुरुसे उत्पन्न हुए तेल में भी काली अगरके समान गुण हैं ॥ २१-२३ ॥
देवदारु। देवदारु स्मृतं दारु भाद्रदाविदारु च । मस्तदारु द्रुकिलिमं किलिमं सुरभूरुहः ॥ २४ ॥ 'देवदारु लघु स्निग्धं तिक्तोष्ण कटुपाकि च ।। विबन्धाध्मानशोथामतंद्राहिकाज्वरात्रजित् ॥२५॥ प्रमेहपीनसश्लेष्मकासकंडूसमीरनुत्। देवदारु, दारु भद्रदारु, इन्द्रदारू, मस्तदारु, द्रुकिलिम, किलिम तथा सुरभूरुह यह देवदारुके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे देवदाह फारसीमें देवदार तथा अंग्रेजीमें lsua Caprredea कहते हैं।
देवदारु-हल्का, स्निग्ध, तिक्त, गरम पाकमें कटु और मलके बंध, आध्मान, शोथ, आम, तन्द्रा, हिचकी, ज्वर, रक्तविकार, प्रमेह, पीनस, कफ, खांसी, कण्ड, (खुजली) तथा वायुको नष्ट करता है ॥ २४ ॥२५॥
सरलः। सरलः पीतवृक्षः स्यात्तथा सुरभिदारुकः ॥२६॥ सरलो मधुरस्तितः कटुपाकर सो लघुः ।
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