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प्रस्तावना
जयपुर वाले पं० भगवानदास जैन ने सर्व प्रथम ठक्कुर फेरू के वास्तुसार प्रकरण को गुजराती व हिन्दी अनुवाद सहित सचित्र सुसम्पादित कर प्रकाशन किया तभी से उन ठक्कुर फेरू की प्रसिद्धि विद्वत् समाज में व्याप्त हो गई थी। उस प्रकरण के साथ रत्नपरीक्षा का कुछ त्रुटक भाग भी प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात् जव सं० १९९४ में हमने "दादा जिनकुशलसूरि" पुस्तक लिखी तो युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में भी कन्नाणा और दिल्लो के अधिवासी इस परमाहत श्रावक का नाम दिल्ली के मुख्य श्रावकों के साथ कई बार आया। जैन साहित्य महारथी श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने "जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास" में इनके ग्रन्थों का नामोल्लेख किसी ज्ञानभण्डार की सूची के आधार पर किया पर उन्ोंने स्वयं इनके ग्रन्थ देखे हों ऐसा नहीं लगता। उस विशाल ग्रन्थ में से नाम के आधार पर ग्रन्थ का आशय आकलन कर लेना समुद्र में से रत्न खोज के निकालने जैसा कठिन कार्य था। और आजतक किम प्राधार से देसाई महोदय ने नामोल्लेख किया इसका कोई पता नहीं लगा और न किसी प्रति की हो उपलब्धि हुई।
कलकत्ता की श्री नित्य-विनय-मणि-जीवन जैन लायब्ररी से हमारा संबन्ध लगभग ४५ वर्षों से था। वहाँ से हम यथावश्यक हस्तलिखित ग्रंथ निकलवा कर लाते और समुचित उपयोग करते थे और अलभ्य या नवोन ग्रंथ कहीं से भी प्राप्त होता तो उसकी खोज में सतत संलग्न रहते थे। सं० २००१ में एक बार मैंने हस्तलिखित ग्रंथसूची देखते “सारा कौमुदी गणित ज्योतिष" नामसे उल्लिखित ठक्कुर फेरू की ६० पत्रों वाली प्रति का नाम देखा तो उसे अपनी नोट बुक में फिर कभी ग्राकर अवश्य देखने के लिए नोट कर लिया। थोडे दिन वाद पूज्य काकाजी अगरचंदजी नाहटा बीकानेर से पधारे । उन्होंने मेरी नोटबुक में नाम देखा तो उन्हें विलम्ब कहाँ था ? तुरन्त जाकर प्रति निकलवा कर देखी तो प्रानन्द की सीमा न रही क्योंकि उस सूची में उल्लिखित उक्त नामक ग्रंथ के विपरीत ठक्कुर फेरू के विविध विषय के सात ग्रन्थ थे जिनमें 'द्रव्यपरीक्षा' तो अपने विषय का एक बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ था। - काकाजी ने उस प्रति को लाकर सुन्दर प्रेसकापी बनाने के लिए मुझे सौंपा और पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजय जी को इस महत्त्वपूर्ण उपलब्धि की सचना दी। उन्होंने इसे सिंघी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित करने की उत्सुकता वतलाई और मैंने यथाशीघ्र सभी ग्रन्थों को प्रेम कापी तैयार कर प्रकाशित वास्तुसार के पाठान्तगदि सह मुनि जी को बम्बई भेज दी। मूनि जी ने मूल प्रति देख कर प्रकाशन करने का निर्णय किया। मूल प्रति भी उन्हें दी गई पर
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