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________________ सकते कि उसे भी हमारा अर्थ ही अभीष्ट था। अब भी देखने में आता है कि रचयिता के शब्दों को न समझ कर या कुछ का कुछ समझ कर पत्र आदि के संपादक कई स्थानों पर अर्थ का अनर्थ कर देते हैं । हम किसी प्राचीन रचना को अपनी भाषा, भाव, शैली आदि के नियमों और विचारों से न जांचें, अपितु उस रचना के समय प्रचलित विचार, भाव, भाषा, शैली आदि के नियमों से जांचें। हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि अमुक रचयिता ने यहां पर क्या लिखा या सोचा होगा या वह क्या लिख या सोच सकता था। सपादक को इस बात से कोई वास्ता नहीं कि उस रचयिता को यहां पर क्या लिखना या सोचना चाहिए था। पाठ औचित्य के विषय में एक यह बात भी देखनी पड़ती है कि उपलब्ध प्रतियों का समपाठ या उन के सब पाठ-भेद गृहीत पाठ के विकृत रूप हो सकते हो, और "लिपिकारों में यह अशुद्धियां कैसे की", इस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता हो । इस के लिए पिछले अध्याय में निरूपित दोष और उन के कारणों का परिज्ञान आवश्यक है। जो पाठ उपलब्ध पाठ भेदों का मूल कारण हो सके उस पाठ को लेखानुसंगत और उस के इस धर्म को लेखानुसंगति कहते हैं। लेखानुसंगति के सम्बन्ध में यह आवश्यक है कि प्रस्तुत पाठ उपलब्ध प्रतियों में हो सकता हो । उदाहरण-किसी रचना की प्रतियों में 'विष्ठिता' और धिष्ठिता पाठ हैं, इन में से कौन सा ऐसा शब्द रखा जाए जो विषयानुसंगत भी हो और लेखानुसंगत भी। 'धिष्ठिता' विषयानुसंगत है । यह लेखानुसंगत भी है क्यों कि उत्तर भारत की प्राचीन लिपियों में 'ध' और 'व' समान आकृति वाले हैं। प्रत्येक पाठ की इस प्रकार की परीक्षा के पश्चात् चार परिणाम हो सकते हैं - स्वोकृत, संदेह, त्याग और सुधार । स्वीकृति-यदि संपादक निश्चयपूर्वक कह सके कि अमुक पाठ रचयिता को अभीष्ट था या हो सकता था, तो वह उसे मूल पाठ में स्वीकार करेगा । इस को स्वीकृति कहते हैं। पाठ को स्वीकृति में विशेष ध्यान देने योग्य यह बात है कि कठिन पाठ प्रायः आसान पाठों से अच्छे होते हैं, और छोटे पाठ प्रायः लम्बे पाठों से प्राचीन होते हैं । 'कठिन' से हमारा अभिप्राय लिपिकार के लिए कठिय' और 'आसान' से 'लिपिकार के लिए आसान है। हम पहले बतला चुके हैं कि जिस पाठ को लिपिकार नहीं समझता, उसे प्रायः वह अशुद्ध मान कर अपनी मति से सुधार देता है। परन्तु लिपिकार के सुधार ऊपरी होते हैं, वह पाठ की तह तक नहीं पहुंचते । वह उपयुक्त Aho I Shrutgyanam
SR No.034193
Book TitleBharatiya Sampadan Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulraj Jain
PublisherJain Vidya Bhavan
Publication Year1999
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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