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________________ वास्तुदेशमें, नमस्कार जिसके अन्तमें ॐकार जिसकी आदिमें हो ऐसे मन्त्रसे बलिको दे ॥ १३ ॥ क्रमसे वेदोक्तमंत्रोंसे देवताओंका पूजनकरै फिर व्याहृतियोंसे होम करे और स्विष्टकृत होमको करे ।। ११४ ॥ फिर पूर्णाहुतिका हवन करे और संस्रवका प्राशन अर्थात् सुवेके | अधीका भक्षण करे और विधिसे वास्तुमण्डलदेवताओंको बलि दे ॥ ११५॥ शिखिको पृतान्न दे। पर्जन्यको पृतान्न और कमलकी बलि दे फिर जयन्त आदि वास्तुमण्डलदेवताओंको बाल दे ॥ ११६ ।। कुलिशायुधको पंचरत्न और पुष्टिके पदार्थ दे सूर्यको कुशा और धूम्र रक्त चंदोवा वेदोक्तेनैव मन्त्रेण संपूज्या देवताः क्रमात् । ततो व्याहृतिभिहोंमः स्विष्टकृद्धोममेव च ॥११॥ पूर्णाहुतिञ्च जुहुयात्संस्रवप्राशन ततः । वास्तुमण्डलदेवेभ्यो बलिं दद्याद्विधानतः ॥ ११५॥ घृतानं शिखिने दद्यात्पर्जन्याय च सोत्पलम् । जयन्तादिवास्तुम ण्डलदेवेभ्यो बलिं ततः ॥ ११६॥ कुलिशायुधाय पञ्चरत्न पौष्टिकसंभवम् । कौशं सूर्याय धूम्ररक्तविनापूपसक्तवैः ॥ ११७ ॥ सत्याय घृतगोधूम मत्स्यान्नश्च भृशाय च। अन्तरिक्षाय शष्कुली मांसं वापि च शाकुनम् ॥११८॥ वायसे सक्तवः प्रोक्ताः पूष्णे लाजाः स्मृता बुधैः । वितथाय चणकान्नं मध्वन्नं च गृहक्षते ॥११९॥ यमाय पिशितान्नं तु गन्धर्वाय गन्धौदनम् । भृगराजाय मेषस्य जिह्वायाश्च बलि हरेत्।।१२०॥मृगाय यावकं दद्याद्वलिं नीलपदस्तथापितृभ्यः कृशरानं च तथा दौवारिकाय च॥१२३॥ - अपूप और सनु दे ॥ ११७ ॥ सत्यको घी और गेहूं दे. भृशको मत्स्य और अन्न दे. अन्तरिक्षको शप्फुलि (पुरी) और पक्षियोंका मांस दे ॥ ११८ ॥ वायसको सनु और पृषाको लाजा (खील) बुद्धिमान् मनुप्योंने कही हैं. वितथको चणकान्न, गृहक्षतको मध्वन्न दे ॥ ११९ ॥ यमको पिशितान्न (मांस) गन्धर्वको गन्धोदन, भुंगराजको मेटेके जिह्वाकी बलि दे ॥ १२० ॥ मृगको और नीलपदको जोकी बलि दे,
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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