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इस मन्त्रसे करे, काल पश्चिम दिशामें कृष्णवर्णका उसका 'वरुणस्योत्तम्भनमसि०' इस मंत्रसे पूजन करे ॥ एकपाद उत्तरमें पीतवर्णका उसका 'कुविंदंग' इस मंत्रसे पूजन करे, ईशान और पूर्व दिशाके मध्यमें पीत वर्णका गन्धमाल्य होता है ॥९५ ॥ ९६ ॥ उसका पूजन अन्तरिक्षमें|
'गंधद्वारा०' इस मंत्रसे करे नैर्ऋति दिशामें चुद्धिके मध्यमें स्थित श्वेतरूपधारी ज्वालास्य है ॥९७ ॥ विधिसे उसका पूजन 'महीद्यो:०' इस मंत्रसे| I|करे जो बाह्य देवता कहे हैं उनके पूजन प्रासादमें करें । ९८ ॥ दुर्ग और देवालय और शल्योद्धारमें विशेषकर पूजन करे और चतुःषष्टि पद
गधद्वारेति मन्त्रेण पूज्यमानोऽन्तरिक्षके। नैऋत्यां बुद्धिमध्यस्थो ज्वालास्यः श्वेतरूपधृक् ॥ ९७॥ महीद्योरितिमंत्रेण पूजनीयो विधानतः। या बाह्यदेवताः प्रोक्ता प्रासादे ताः प्रपूजयेत् ॥९८॥ दुर्गे देवालये चैव शल्योद्वारे तथैव च । विशेषेणैव पूज्याश्च चतुःपष्टिपदं तथा ॥९९॥ कलशे स्थापयेदेव वरुणं वरुणौ ततः। कलशं पूरयेत्तीर्थवारिणा सर्वबीजकैः ॥ १०॥ सर्वोपधैः सब
रत्नगन्धैश्च विविधैस्तथा । पल्लवैः पञ्चकापार्यमृदा शुद्धोदकेन वा ॥१०१ ॥ ग्रहाणां पूजनं तत्र कारयेदेदिकोपरि । मुरा मांसी | वचाकुष्टं शैलेयं रजनीद्वयम् ॥ १०२॥ शुंठी चम्पकमुस्ता च सर्वोपधिगणः स्मृतः। अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षचूतन्यग्रोधसंभवाः॥१०३॥ जिसमें ऐसे वास्तुकोभी बनावे ॥ ९९ ॥ कलशके विषे वरुणदेवका स्थापन करे और उस कलशको तीर्थके जल और सर्व बीजोंसे परित
करे ॥१०० ॥ सौषधि सर्वरत्न और अनेक प्रकारके गन्ध पंच कषाय और पल्लव और मिट्टी इनसे पूर्ण करे वाशुद्ध जलसे पूर्ण करे ॥१०॥वह था हुवेदीके ऊपर ग्रहोंका पूजन करे मुरा जटामांसी वच कूट चंदन दोनों हलदी ॥ १.२ ॥ शंठी चम्पा नागरमोथा यह सर्वोषधियोंका गण कहा है.
विट्यवमतो यनश्चिद्ययादान्यनुपूर्व विषय । इहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नम उक्तिं यजन्ति । उपयामगृहीतोस्पविभ्यां त्वा सरस्वत्यै स्वेन्द्राय त्वा सुवागणे ॥ २शी इतिपाठान्तरे (कारकाचरी) इति भाषार्थः ।