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________________ होता है वह स्तंभों को रखने और तुलाके रखने में सदैव वर्जित है ॥ ३४ ॥ संपूर्ण कमोंमें वास्तुपुरुष दक्षिण और अनेकांणम आयन ( लम्बा ) | कहा है, इक्यासी ८१ पदके इस वास्तुमें देवताओंके स्थापनको सुनो ॥ ३५ ॥ उसमें रेखाओके फलकोभी संक्षेपसे कहता हूं और वणके क्रमसे श्रेष्ठ अंगके स्पर्शको कहता हूं ॥ ३६ ॥ ब्राह्मण शिरका स्पर्श करके, क्षत्रिय नेत्रका स्पर्श करके, वैश्य जंघाओंका स्पर्श करके और शूद्र चरणोंका स्पर्श करके वास्तुके पूजनका प्रारंभ करें ॥ ३७ ॥ अंगृठेसे वा मध्यकी अंगुली से वा प्रदेशिनीसे अथवा सुवर्ण चांदी आदि धातुसे सर्वत्र वास्तुनिर्दिष्टः पितृवैश्वानरा यतः । एकाशीतिपदे ह्यस्मिन्देवतास्थापने शृणु ॥ ३५ ॥ रेखाणां च फलं तत्र कथयामि समासतः । वर्णानुपूर्व्येण तथा अङ्गस्पर्शनकं परम् || ३६ || विप्रः स्पृष्ट्वा तथा शीर्ष चक्षुः क्षत्रियकस्तथा । वैश्यश्वोरू च शुद्रश्व पादौ स्पृष्ट्वा समारभेत् ॥ ३७ ॥ अंगुष्टकेन वा कुर्यान्मध्यांगुल्या तथैव च। प्रदेशिन्या ह्यपि तथा स्वर्णरौप्यादिधातुना ॥ ३८ ॥ मणिना कुसुमैर्वापि तथा दध्यक्षतैः फलैः । शस्त्रेण शत्रुतो मृत्युर्वन्धो लोहेन भस्मना ॥ ३९ ॥ अग्नेर्भयं तृणेनापि काष्ठादिलिखि तेन च । नृपाद्भयं तथा वत्रे खंडे शत्रुभयं भवेत् ॥ ४० ॥ विरूपा चर्मदन्तन चांगारेणास्थिनापि वा । न शिवाय भवदेखा स्वामिनो मरणं तथा ॥ ४१ ॥ अपसव्यक्रमे वैरं सव्ये संपदमादिशेत् । तस्मिन्कर्म समारंभे क्षुतं निष्टीवितं तथा ॥ ४२ ॥ पूजनको करे ।। ३८ ।। अथवा मणिसे वा पुष्पोंसे वा दही अक्षत फलोंसे पूजन करे और शस्त्रसे पूजन करे तो शत्रु से मृत्यु होती है. लोहेसे बन्धन और भस्मसे ॥ ३९ ॥ अनिका भय, तृण और काष्ठ आदिके लिखनेसे राजासे भय होता है. वक्र ( टेढा) और खंडित होनेपर शत्रु से भय होता है ॥ ४० ॥ कुरुप रेखा, चर्म और दांतोंसे बनाई रेखा, कोला और अस्थिसे बनाई रेखा कल्याणके लिये नहीं होती और स्वामकिं मरणको करती है ॥ ४१ ॥ अपसव्य ( ग्राम ) क्रमसे करे तो वैर, दक्षिणसे करे तो सम्पदा होती है. वास्तुकर्मके प्रारंभ में
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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