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द्वारमार्गके पूर्वभागमें सोलह हाथकी ध्वजा होती है. इसका स्तंभभी घंटा-भूषणोंसे सहित विधिपूर्वक स्थापन करना ॥ १०७॥ दक्षिण पुष्पमालाओंसे युक्त स्तंभ द्वारमार्गमें स्थापन करे, यह वास्तुशास्त्र प्रथम बुद्धिमान् गर्गमुनिको ब्रह्माने कहा ॥ १०८ ॥ गर्गमुनिसे पराश रको, पराशरसे बृहद्रथको, बृहद्रथसे विश्वकर्माको वास्तुशास्त्र प्राप्त हुआ ॥ १०९॥ वह विश्वकर्मा जगत्के हितार्थ फिर वासुदेव-आदिकोको भूलोकमें भक्तिसे कहता भया ॥ ११०॥ इस पवित्र परम रहस्य (गुप्त) को जो नर पढताहे उसकी वाणी सफल होतीहै यह में सत्य कहता यहारमार्गे पूर्वे तु ध्वजः पोडशहस्तकः। स्तंभोऽस्य विधिवत् स्थाप्यः सघण्टाभरणीकृतः॥१०७॥ पुष्पमालान्वितः स्थाप्या द्वारमार्गेऽथ दक्षिणे । इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्व गर्गाय धीमते॥१०८॥गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो बृहद्रथः । वृहद्रथाद्विश्व कमा प्राप्तवान्वास्तुशास्त्रकम्॥१०९॥स विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत् पुनः । वासुदेवादिषु पुनर्भूलोके भक्तितोऽब्रवीत्॥११० इदं पवित्रं परमं रहस्यं यः पठेन्नरः । स्यात्तस्यावितथा वाणी सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥१११॥ अथ सुविमलविद्यो विश्वकमा महात्मा सकलगुणवरिष्ठः सर्वशास्त्रार्थवेत्ता । सकलसुरगणानां सूत्रधारः कृतात्मा भवननिवसतां सच्छास्त्रमेतच्चकार ॥११२॥ । इति ब्रह्मोक्तविश्वकर्मप्रकाशे श्रीविश्वकर्मणोक्तवास्तुशास्त्रे त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३॥ समाप्तोऽयं विश्वकर्मप्रकाशः॥ . हूं॥ १११ ॥ इसके अनन्तर अत्यंत निर्मल है विद्या जिसकी ऐसा महात्मा विश्वकर्मा जो सवगुणोंमें श्रेष्ठ है, संपूर्ण शास्त्रोंक अर्थका जाता है, संपूर्ण देवताओंके गणोंका सूत्रधार है और पुण्यात्मा है वह भवनमें निवासियोंक इस लिये वास्तुशास्त्रको करता भया ॥ ११२॥ । इति पं० मिहिरचन्द्रकृतभाषा० श्रीब्रह्मोक्तविश्वकर्मप्रकाशे विश्वकर्मणोक्तवास्तुशास्त्रे त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३ ॥ इति भाषाटीका समाप्ता ॥
इदं पुस्तकं मोहमय्यां श्रीकृष्णदासात्मज-क्षेमराज-श्रेष्ठिना स्वकीये "श्रीवेंकटेश्वर " मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ॥ संवत् १९९.२, शके १८५७.
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