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कर्म और गृहारंभके प्रथम समयमें सब सिद्धियोंको देनेवाला और सिद्ध देवता मनुष्य ये जिसकी दिन रात सेवा करते हैं ॥१३॥ ९४ ॥ ऐसे ® वास्तुपुरुष आप इस समय इस प्रजापति क्षेत्रमें आनकर स्थित हो और यहां आकर पूजाको ग्रहण करा और वरको दो ॥ ९५ ॥ हे वास्तु : पुरुष ! हे भूमिरूपी शय्यापर सोनमें तत्पर ! हे प्रभो ! आपको नमस्कार है, मेरे गृहको धन धान्य आदि करके समृद्ध (युक्त ) सदैव करो ॥ ९६ ।। इस प्रकार प्रार्थना करके फिर भूमिमें पिट्टी वा चावलोंसे नागरूप धारण किये हुए समस्त वास्तुपुरुषको, लिखे ॥ ९७ ॥ और वेदके गृहारंभप्रथमकाले सर्वसिद्धिप्रदायक । सिद्धदेवमनुष्यैश्च पूज्यमानो दिवानिशम् ॥ ९४ ॥ गृहस्थाने प्रजापतिक्षेत्रस्मिस्तिष्ट साम्प्रतम् । इहागच्छ इमां पूजां गृहाण वरदो भव ॥ ९५ ॥ वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूमिशय्यारत प्रभो । मद्गृहं धनधान्या दिसमृद्धं कुरु सर्वदा ॥ ९६॥ इति प्रार्थ्य ततो भूमौ संलिखेवास्तुपूरुषम् । पिष्टातकैस्तण्डुलवी नागरूपधरं विभुम् ॥९७॥ आवाहयेद्वेदमन्त्रैः पूजयेच्च स्वशक्तितः। आवाहयाम्यहं देवं भूमिस्थं च अधोमुखम् ॥ ९८ ॥ वास्तुनाथं जगत्प्राणं पूर्वस्यां प्रथमाश्रितम् । विष्णोरराटेतिमन्त्रेण पूजयेत्सर्पनायकम् ॥ ९९ ॥ नमोऽस्तु सभ्य इति वा पूजयेच्च स्वशक्तितः। कुक्षिप्रदेशे निखनेद्वास्तुनागस्य मंत्रतः ॥ १०॥ मित्रोंसे आवाहन करे और अपनी शक्तिके अनुसार पूजन करे कि, भूमिके विषे स्थित और अधोमुख वास्तुका मैं आवाहन करताहूं ॥९८ ॥ Kजो वास्तुके नाथ हैं जो जगतके प्राण हैं और जो प्रथम पूर्वदिशामें स्थित हैं ऐसे सबके स्वामी वास्तुपुरुषका 'विष्णोरराट' इस मन्त्रसे पूजन करे ॥ ९९ ॥ अथवा अपनी शक्तिके अनुसार 'नमोऽस्तु सर्पेभ्यो' इस मन्त्रसे पूजन करें और पूर्वोक्त मंत्रका पढकर वास्तुनागकी कुक्षि के स्थान
२ वास्तोपत प्रतिजानीद्दीत्यादिमन्त्रेण । २ वास्तुनाथस्य इति पाटान्तरम।