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पद्म और उत्पलोंसे भूषित जल श्रेष्ठ होते हैं ॥ १०६ ।। चारों तरफ परिखा और वलय आदि बनवाने, दक्षिणमें तपोवनका स्थान और उत्तरमें मातृकाओंका घर बनवाना ॥ १०७ ॥ पश्चिममें लक्ष्मीका निवास, वायव्यमें ग्रहोंकी पंक्ति, उत्तरमें यज्ञको शाला और निर्माल्यका स्थान बनाना कहा है ॥१०८ सोम है देवता जिसकी ऐसी उत्तरदिशामें बलिदानका स्थान कहा है, पूर्वमें वृषोंका स्थान शेष और काम देवका स्थान कहा है ॥ १०९ ॥ जल और वापी और जलशायी विष्णुका स्थान कहा है इस प्रकार शुभमण्डपोंसे युक्त स्थानको बनवावे सर्वतश्चापि कर्तव्यं परिखावलयादिकम् । याम्यं तपोवनस्थानमुत्तरे मातृकागृहम् ॥ १०७॥ वारुण श्रीनिवासस्तु वायव्ये गृहमालिका । उत्तरे यज्ञशाला तु निर्माल्यस्थानमुच्यते ॥१०८॥ वारुणे सोमदेवत्ये बलिनिर्वपणं स्मृतम् । पुरतो वृषभस्थान शेपं स्यात्कुसुमायुधम् ॥१०९॥ जलवापी तथैशान्ये विष्णुं च जलशायिनम् । एवमायतनं कुर्याच्छुभमण्डपसंयुतम् ॥ ११०॥ घण्टावितानकसतोरणचित्रयुक्तं नित्योत्सवप्रमुदितेन जनेन सार्द्धम् । यः कारयेत्सुरगृहं भवन ध्वजांक श्रीस्तं न मुञ्चति सदा दिवि पूज्यते च ॥११॥ एवं द्वारार्चनविधिं कृत्वा द्वारबलिं ततः । महाध्वज द्वारमुखे प्रवेशसमये कृतम् ॥ ११२॥ ॥ ११० ॥ घण्टा वितान तोरण चित्र इनसे युक्त और ध्वजासे चिह्नित और नित्य उत्साहके कर्ता प्रसत्रमनोंसे युक्त देवताके भवनको जो मनुष्य बनवाता है उसको लक्ष्मी कदाचित् नहीं छोडती और वह सदैव स्वर्गमें पृजित रहता है ॥ १११ ॥ इस प्रकार द्वारपूजाकी विधिको करके जो द्वारबलिको करे. द्वारके मुखमें प्रवेशके समय महाध्वजाका स्थापन करे ।। ११२॥