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________________ KARWARISEKASHAN समीहइ जो को विहु रमणिसंगम मृढो । सो सिसिरसमीहाए पविसइ पजलंतजलणंमि ॥१०२॥ मोहंधो एस जणो विवरीयं चिय सया वि पेक्खेइ । असुईण निहाणं पि हु रमणि खलु मुणइ रमणीयं ॥ १०३ ॥ ता जणणिजणय ! अयं विरच चित्तो इयाणि गिहवासा । संसारजलहिवेडा गिण्हेयब्बा मए दिक्खा ॥ १०४ ॥ सुणिऊणं तं वयणं वञ्जनिवार्य व जणणिजणया तं । पभणति वच्छ ! तुमयं एक च्चिय अम्ह पुत्तो सि ॥१०५ ॥ जइ कहवि तुमं दिक्खं गिहिसि हिययं तड त्ति अम्हाण । फुट्टिस्सइ ताव लहुं वच्छ ! तुमं कुणिय कारुनं ॥१०६ ॥ गयसावओ चिट्ठसु गेहि च्चिय भावओ मुणीहोउं । जा अम्हे जीवामो तओ परं कुणसु जं उचियं ॥ १०७॥ सो पभणइ जणयाणं पडिउवयारोन विजए कहवि । जेहिं मणुस्सजम्मो दिण्णो चिंतामणिसमाणो ॥ १०८ ॥ भावेण गहियदिक्खो चिट्ठइ गेहे वि मुकवावारो। सो निचलज्माणमणो विरत्तचित्तो गमह कालं ॥ १०९॥ जे सवं चइऊणं तिणं व लीलाइ गिहियं(उ) दिक्खं । पालिंति निक्कलंकं ते चिय धना जए मुणिणो ॥११०॥ किं होही सो दियहो पहजमहं पि गिव्हिय सुहेण । चारित्तं पालित्ता नियकजं जेण साहिस्सं ॥११॥ इय भावमावियमणो बहुपुग्नं अजिऊण सो धनो। सुरलोयं संपचो सुहसुक्खं झुंजए तत्थ ॥ ११२ ॥ इति भावनाप्रभावे धर्मदत्तकथानकं समाप्तम् । - - - भावनाप्रभावे बहुबुद्धिकथानकम्-दाणेणं सीलेणं तवेण लोओ विणा वि पावेह । बहुबुद्धी विन मावणपहायो देवरिद्धीओ ॥१॥ चंपाइ पुरवरीए गयणम्मबिलग्गजिणहरजुयाए । जियसन्तुनरनाहो जहत्वनामो सुधम्मपसे ॥२॥ EKACAKAALHARE
SR No.034180
Book TitlePaiakaha Sangaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay, Kantivijay
PublisherVijaydansuri Jain Granthmala
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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