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खंग ५ मो.
डुदा.
पवनवेग जाइ सांजलो, मनोवेग कहे सार ॥ अवर पुराण वली दाखवुं, जेम लहो विवेक विचार ॥ १ ॥ शुद्ध जिन धर्म कीजीए, नहीं विरुद्ध लगार ॥ मिथ्या मारग परिहरो, जेम तरो संसार ॥ २ ॥ बोध रूप बेहु जणे धर्यां, पहेर्यां रक्त सुवस्त्र ॥ शिर मुंगा जोली बांही बे, कर दंग धरीने शस्त्र ॥ ३ ॥ पाटलीपुर प्रवेश करी, वादशालाए गया चंग ॥ नेर घंटारव तव कीयो, बेठा सिंहासन रंग ॥ ४ ॥ नाद सुणी विप्र यवीया, देखी बोल्या ताम ॥ खट् दर्शन विवाद करो, उंचा बेठा श्रम ठाम ॥ ५ ॥ मनोवेग कहे सांजलो, विप्र तमो बो सुजाण ॥ वाद शास्त्र जाएं नहीं, अमे खरे तुं अजाण ॥ ६ ॥ विप्र कहे मूरख सुणो, केम कर्यो घंटानाद ॥ केम सिंहासन चांपीयुं, जो नहीं जण्या विवाद ॥ ७ ॥ कुण गाम गमथी आवीया, कुप दीक्षा धरी अंग ॥ कपट तजी साधुं कहो, नहींतो लदेशो जंग ॥ ८ ॥ बोध रूपे मनोवेग वदे, सुणो जट्ट जाइ सार ॥ साधुं कहेतां मे एकला, कुटाइए निराधार ॥ ए ॥ तुम