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धर्मपरी०
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सघली मन तणी, तेम बोलुं हुं हवे वाणरे || स्मृति पुराण वेदमां जुटे ॥ ए की ॥ १ ॥ मोटो पारासर रिषिमां कह्यो, एक दिवस कीधो विहाररे ॥ गंगा नदी उपकंठे रही तिहां, नाव खेडे कन्या एक साररे ॥ स्मृ ॥२॥ महगंधा नाम बे तेहनो, कुरूप जागणी देहरे ॥ गंधाय शरीर जोजन लगे, वीजुं नाम धर्यु वली तेहरे ॥ स्मृ ॥ ॥ ३ ॥ दीठी एकली कन्या पारासरे, नावे बेठो जोइ तस रूपरे ॥ जाग्यो मनोजव तव स्तन देखीने, विकल थयुं तव स्वरूपरे ॥ स्मृ ॥ ४ ॥ रुषि कहे मशुं कृपा करो, दान देउ कायानी सारीरे ॥ सुपो तपसी तव जणे कामनी, मुज तनु दुर्गंध धारीरे ॥ स्मृ० ॥ ५ ॥ जुखाले लोक देखे सहु, घटतुं केम कीजे काजरे ॥ देह कीधो सुगंध हाथ फेरीने, धुंयर केरी लोपी लाजरे ॥ स्मृ० ॥ ६ ॥ जोग विलास करतां अनुक्रमे, जनम हुई वेद व्यासरे ॥ मुब कुंबने कमंगल धर्यो हाथमें, वेद | पुराण मुख बोले जासरे ॥ स्मृ० ॥ ७ ॥ कोटे जनोइ कर जपमालिका, मृगचर्म दंड उत्तंगरे ॥ कर जोकी लाग्यो तापस रूपे, मात तात पाय मन रंगरे ॥ स्मृ ॥ ८ ॥ श्रादेश पारासुरनो लही, तप मांड्यो गंगाने तीररे ॥ वेद व्यास मोटो रुषीश्वर अबे, ध्यान धरे महावंत धीररे ॥ स्मृ० ॥ ए ॥ वनमां शिख देश कृषि गयो, एकली
खंभ
॥ ए