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धर्मपरी०
॥ ७३ ॥
॥ ॥ ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा, कृषि सहस्र अव्याशीरे ॥ कर जोडी युधिष्टर जणे, ब्रह्मा कोने विमासीरे ॥ वे० ॥ ४ ॥ धर्म केही परे उपजे, अमे करूं ते काजरे ॥ ब्रह्मा कहे युधिष्टर सुणो, जाग मांगो महाराजरे ॥ वे० ॥ ५ ॥ श्रश्वमेधे तुरंगम दणो, पुंडरिक मांदे हाथी रे || गोमेध पुण्य गायज दणी, अजामेध यज साथीरे ॥ वे ॥ ६ ॥ राजसूय महा जागमां, नरपति होमो साररे ॥ विविध जीव जागे कला, तेहनो पुण्य नहीं पाररे ॥ वे० ॥ ७ ॥
श्लोकः - गोसुवे सुरनिर्दन्यात्, राजसूये च भूभुजम् ॥ अश्वमेधे हयं हन्यात्, पुंमरिके च हस्तिनम् ॥ १॥ तव राजा प्रारंभीयो, राजसूर्य जागनो नामरे ॥ दैत सघला रोषे ढ्या, जांजी जागनो ठामरे ॥ वे० ॥८॥ युधिष्टर राजा तव जणे, अर्जुन सुणो तमे जाइरे ॥ शेषनाग तेको पातालथी, साते कृषि वेगे जाइरे ॥ वे० ॥ ए ॥ ते श्रावे तो कारज सरे, नहींतो विसे जागरे ॥ अर्जुने तव बाण मूकीयुं, फोड्यो भूमि नागरे ॥ वे० ॥ १०॥ बाण बिद्रे पेठो अर्जुनो, पाताल गयो तामरे ॥ नाग रिषिने सहु कयुं, पधारो स्वामि गामरे ॥ वे० ॥ ११ ॥ शेषनाग कृषि सातशुं, विचारी करी साररे ॥ धर्म काम करशुं मे,
॥ ॐ