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________________ सार ॥१॥ एक उत्तर आपो वली, मनोवेग महंत ॥ देव मांहिं जे गुण अने, ते सटु । कहो तुमे संत ॥२॥ मनोवेग कहे सांजलो, पवनवेग पवित्र ॥ सुर सघलाना गुण कहुँ, मनमां विचारो चित्र ॥ ३॥ जुवन व्यंतर ज्योतषी, स्वर्गवासी जे देव ॥ तेह तणा गुण सांजलो, श्राप कहुँ संखेव॥॥श्रणिमा अणुं मात्रज करे, मणिमा मेरु समान॥लघिमा लघुपणुं श्राचरे, गरिमा नारी जाण ॥५॥ प्राप्ति सर्व प्राक्रम करे, इस तणो गुण देय॥ yकाम रूप चिंत्यु करे, वशीकरण वशी तेय ॥६॥ आठ गुणो ने एह जला, देव तणे जे अंग, ब्रह्मादिकने ते नहीं, एक गुण जे उत्तंग ॥ ७॥ लघिमा गुण ते पामीया, जेणे हो. ये वहोत्तर लाज ॥ लोक मांहीं हलवा हुवा, ते कहीशु गुण आज ॥७॥ सहु पर्वत | माहे जलो, कैलास उत्तम गम ॥ शंकर तप जप तिहां करे, एकाकी गुणधाम ॥ ए॥ नारद ऋषि तिहां आवीया, हरने करी प्रमाण ॥ कर जोमी वदे विनति, सांजलो हर मुज वाण ॥ १० ॥ पुत्र विना गति नवी होये, पहेले परणो नार॥ पुत्र तणी उत्पत्ति | करी, पड़ी शषि व्रत धार ॥११॥ईश्वर तव तिहां बोलीयो, सांजल तुं मुनिराज ॥ कन्या जुवो तमे रुयमी, वेगे करो श्रम काज ॥१२॥ उत्पत्ति करुं संताननी, वाधे मुज |तो वंश ॥ परणाव्यानुं पुण्य घj, तुम होशे सुख हंस ॥ १३ ॥ नारद तव ते सांगली,
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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