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घट काम कन्याशुं कीध, धर्मराज महीयल परसीध ॥ सा० ॥ सां० ॥ ए ॥ छाया सरसुं सुख जोगवे, रात दिवस ते जनम अनुजवे ॥ सा० ॥ सुर सघले तव जाणी नार, एहवी नहीं त्रिभुवन मोजार ॥ सा० ॥ सां० ॥ १० ॥ हरवा देरे पमीया देव, यममंदिरनी मांगी सेव ॥ सा० ॥ रात दिवस ते टांपे घणुं, ध्यान लाग्युं बे बाया तपुं ॥ सा० ॥ सां० ॥ ११ ॥ जमे जाण्यो तेइनो संच, सुर सघला मुज करशे वंच ॥ सा० ॥ उपाडीने गली ततकाल, उदर मांहीं उतारी बाल ॥ सा० ॥ सां० ॥ १२ ॥ देव देखे नहीं बाया तेह, माधुं खंजोली गया निज गेह ॥ सा० ॥ धर्मराज विमासण करे, सुर रखे मुज नारी हरे ॥ सा० ॥ सां० ॥ १३ ॥ एकलो निज मंदिरमां जइ, सघले निरखे उनो थइ ॥ सा० ॥ जोतां स्थान नवि देखे कोय, जबकीने जम काढे सोय ॥ सा० ॥ सा० ॥ १४ ॥ पाप करम तेहशुं संचरे, काम कुतूहल एणी परे करे ॥ सा० ॥ काम पड्ये काढे ततकाल, जोग करीने गले ते बाल ॥ सा० ॥ सां० ॥ १५ ॥ इषी परे काल बहु तस जाय, जमकर केहने ठावी न थाय ॥ सा० ॥ पवनदेव पृथ्वी मांहे जमे, जलमां थलमां श्राकाश ते रमे ॥ सा० ॥ सां० ॥ १६ ॥ श्रदृश्य रूपे सघले संचरे, ||देलाए ते कारज करे ॥ सा० ॥ तेथे दीठी बाया जाम, अग्नि मित्रने घर श्राव्यो