________________
ग्रन्थकार का जीवनचरित्र |
पूर्ण अध्यात्मी योगीश्वर जैनधर्माचार्य श्री श्री १००८ श्री चिदानंदजी महाराज का जीवन चरित्र' स्याद्वादानुभव रत्नाकर' ग्रन्थ में उन्हों के ही बचनामृत द्वारा लिखा गया है । वह उक्त ग्रथमें छप गया है, तथापि यह जीवन चरित्र आत्मार्थि भव्य जीवों के वास्ते अत्युपयोगी होनेसे इस ग्रन्थ में भी दिया जाता हैं । इन महात्मा के चरित्रसे हरेक आत्म-जिज्ञासुको अपनी आत्माको उन्नत करने का बोध मिलता है । इस कथन की सत्यता चरित्र पढनेसे ही विदित हो जायगी ।
कुछ जिज्ञासुओने श्री महाराजसे पांच प्रश्न किये थे । उन पाचों प्रश्नों के उत्तर स्वरूप 'स्याद्वादानुभव रत्नाकर' ग्रन्थ की रचना हुई है। उनमें प्रथम प्रश्न यह है कि - "हे स्वामिन्, पहले आपका कौन देश, क्या जाति, और क्या नाम था यह सब वृत्तान्त अपनी उत्पत्ति आदिका कहिये ? तथा
·
साथ ही यह भी कृपाकर बतलाइये कि किस प्रकारसे आपको वैराग्य उत्पन्न होकर यह गति प्राप्त हुई ?
इस प्रश्नका उत्तर उक्त महाराज ( ग्रन्थकार ) ने जो दिया था, वही ज्यों का त्यों यहां उधृत किया जाता है;
“भो देवानुप्रिय, प्रथम प्रश्नका उत्तर सुनो कि मैं जिला अलिगढ़ ( कोल. ) व्रज देशमें था । उस कोलके पास एक हरदबागअ कसबा अर्थात् व्यापारियोंकी मंडी थी । उसमें एक लोहियोंकी जाति अग्रवाल जिसको सम्बत् १७४४ की सालमें गुजराती लोंका गच्छके श्रीपूज्य नगराजजी ने प्रतिबोध करके जैनी श्वेताम्बर बनाये । यती लोगोंके शिथिलाचारी होनेसे वह लोग ढूंढिया ( स्थानकवासी ) मतमें प्रवृत्त होगये थे। उस लोहियाकी जातिमें गर्ग गोत्रको धारण करने वाला एक कल्या
दास नाम करके वैश्य उस वस्ती में प्रसिद्ध और माननीय था । उसकी स्त्री का नाम ललितकुंवरी था, जिसको एक देवकुंवरो नाम कन्या
Scanned by CamScanner