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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
और अपेक्षाको दिखा दिया है, सो समझकर अपनी आत्मका कल्याण करो, सत् गुरूका उपदेश हृदयमें धरो, मिथ्यात्व रूप अज्ञानको परिहरो. जिससे मुक्ति पदको जायबरो।
अब दूसरा जो तुम्हारा प्रश्न है कि जिन आगममें दूव्य और पर्यायकाही कथन है फिर तुमने गुणका कथन क्यों करा, इस तुम्हारे सन्देहको दूर करते हैं कि शास्त्रोंमें व्यार्थिक और परियार्थिक काही कथन है, परन्तु जिज्ञासुके समझानेके वास्ते गुणको जुदा कहा है, परन्तु पर्यायका जो समूह उसकाही नाम गुण है, परियाय और गुणमें कोई तरहका फर्क नहीं किन्तु एक है। सो दृष्टान्त देकर दिखाते हैं कि जैसे सूतका एक तागाकचा वो काम नहीं कर सक्ता, परन्तु सौ, दौसो, पांचसो, तागा इकट्टे करें तो वो मिले हुए कच्चे सूतके तागा समूह रूप मिलकर अनेक कामोको कर सक्त हैं, परन्तु वह जो इकट्टे सूतके तागा रूप हैं, वो उस कच्चे रूप तागासे भिन्न नहीं है किन्तु एक ही है, प्रत्येक (जुदा) होनेसे उसको कचा सूत कहते हैं, और समुदाय मिलनेसे डोरा कहते हैं। तैसेही परियायके समूहको गुण कहते हैं
और प्रत्येकको परियाय कहते हैं, परन्तु परियाय और गुणमें फर्क नहीं किन्तु पर्याय और गुण एक रूप हैं, इनमें कोई तरहका भेद नहीं, केवल जिज्ञासुके समझानेके वास्ते आचार्योंने उपकार वुद्धिसे गुण जुदा कहा हैं, इसलिये हमने भी गुणका कथन जुदा कहा, इसका विशेष कथन देखना होयतो नय चक्र, तत्वार्थ सूत्रकी टीका, विशेष आवश्यक आदिमें देखो प्रथके बढ़जानेके भयसे इस जगह विशेष चर्चा न लिखी।
और जो तुमने, असंख्यात प्रदेशके मध्ये प्रश्न किया सोभी तुम्हारा पदार्थके अजानपनेसे है, क्योंकि जिनको पदार्थका यथावत् बोध है उनको ऐसी तर्क कदापि न उठेगी सोही दिखाते हैं, कि जो निर अवयवी जीव व्यको मानेंतो कई दूषण आते हैं, और जो बस्तु अनादि अनन्त हैं उनमें स्वभाव भी अनादि अनन्त होते हैं, और जो चीज़ अनादि अनन्त है उसमें तर्क नहीं होती, यदि उक्त “स्वभावतर्को नास्ति" जो बस्तु स्वाभाविक है उसमें तर्क नहीं
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