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[ द्रव्यानुभव- रत्नाकर |
३० ]
इस
में माह माही मिलकर एक होजाय उसको जुदा नहीं कह सक्त, लिये इस जगत् में उन पदार्थोंकी जुदी २ सत्ता और स्वभाव अथवा क्रिया और लक्षण जुदा २ होनेसे वो आपसमें सब जुदे ही हैं, इसलिये उनको वस्तुत्व कहा । क्योंकि देखो लौकिकमें भी जिस बस्तुका गुण, स्वभाव जुदा २ देखते है उन २ बस्तुओंको जुदा २ ही कहते हैं, इसलिए सर्व ज्ञदेव बीतरागने भी जुदा २ गुण स्वभाव देखकर जुदी २ बस्तु कहनेके वास्ते ‘वस्तुत्व', इस शब्दको कहा ।
३ द्रव्यत्वं ।
अब तीसरा द्वब्यत्व शब्दका अर्थ और पदार्थों का नाम, लक्षण, प्रमाण आदि युक्तिसे शास्त्र अनुसार किञ्चित दिखाते हैं, सो प्रथम द्वव्यत्वका अर्थ करते हैं कि द्रव्य कितने हैं और द्रव्यका लक्षण क्या है, सो पेश्तर लक्षण कहकर द्रव्योंके नाम कहेंगे । इस जगह प्रश्न, उत्तरसे पाठकगण समझे ( प्रश्न ) या शङ्का बादीकी तरफसे और (उत्तर) या समाधान शिद्धांती की तरफसे जान लेना ।
( प्रश्न आप द्रव्यका लक्षण कहते हो फिर उस लक्षणका भी लक्षण कहना पड़ेगा और फिर उस लक्षणका भी लक्षण पूछेगा तो फिर इस रीति से पूछते २ आवस्ता दोष होजायगा, इसलिये लक्षण ही नहीं बनता तो फिर लक्ष कहांसे बनेगा ।
( उत्तर ) भो देवानुप्रिय अभी तुम्हारेको पदार्थोंके कहनेवाले गुरुका संग नहीं हुआ दोखे, इसलिये तुम्हारेको ऐसा अनावस्था दोषका सन्देह हो रहा है, इस तुम्हारे सन्देह दूर करनेके वास्ते लक्षणका स्वरूप कहते हैं कि जो आचार्य लक्षण करते हैं उस लक्षणका क्षलण अर्थात् निकृष्ट रहस्य यह है कि, आचार्य प्रथम ही अति व्याप्ति, अथवा अव्याप्ति वा असम्भवादि यह तीन दूषण करके रहित जो लक्षण उसको यथावत लक्षण कहते हैं, इसलिये फिर जिशासुको लक्षणका लक्षण पूछने की कांक्षा ही नहीं रहती । इसलिये अब तुम्हारेको तीनों दूषणका स्वरूप दिखाते हैं, कि अति व्याप्ति
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