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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
काष्ठमें कोई कर्त्ता तो दंडरूप कारणको उत्पन्न करे, कोई पतली .. दिकका कारण उत्पन्न करे, इत्यादिक अनेक रीतिसे एक काष्ठमें र
र्ताओंके अभिप्रायसे अनेक तरहके कारण उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि देखो उसो एक दंडसे कर्त्ताघटध्वंस ( फोडना) करनेकी इच्छासे दंडको प्रबृत्तावे तो घट फूट जाय। अथवा कर्ता उस दंडसे घट बनानेकी इच्छा करके जो उस दंडसे चक्रादिक घुमावे तो घट बननेका कारण दंड हो जाय। इसलिये कर्ता जिस कार्य को करनेको इच्छा करे उस वस्तुमें कारणपना उत्पन्न कर लेता है। कर्त्ताके बिना कारणमें कारकपना नहीं। यदि उक्त श्रीविशेषावश्यके “येकारकाः कर्तुराधोना इति कारणं कार्योत्पादक तेन कार्योत्पत्तौ कारणत्वनचकायकिरणे।". इसलिये कारणपना उत्पन्न धर्म है। . अब इस जगह कोई ऐसा कहे कि, वस्तुमें कोई कार्यका कारण तो स्वाभाविक होगा फिर तुम उत्पन्न क्यों कहते हो?
. इसका उत्तर ऐसा है कि, बिविक्षत कार्यके कारणता उत्पन्न हो। क्योंकि देखो जिसकालमें कर्ता कार्य उत्पन्न करनेकी इच्छा करे उसी कालमें कार्य्यपना उत्पन्न होय और कार्य भयेके बाद कारणतापना रहे नहीं। क्योंकि देखो जैसे अनादि मिथ्यात्वि जीव, अथवा अभव्य जीव सतावत हैं परन्तु उनका उपादान सिद्धतारूप कार्यका करनेवाला नहीं, क्योंकि उनको सिद्धतारूप कार्य करनेकी इच्छा नहीं, इसलिये उस उपादान कारणमें कारणतापना नहीं। जब कोई उत्तम जीव सिद्धतारूप कार्य्य उत्पन्न करनेकी इच्छा करके अपनी आत्माको उपादान और अहंतादिक, निमित्त मानकर कर्त्तापने में परिणमे तो कार्य करे । इसलिये कारणता उत्पन्न हुई और वह कार्य सिद्ध भयेके पीछे कारणतापना रहे नहीं । कदाचित् सिद्धतामें साधकता माने तो सिद्ध अवस्थामें साधकतापना कहना पड़े सो सिद्ध अवस्थामें साधकतापना है नहीं। इसलिये कार्य होने के बाद कारणता रहै नहीं। इसी रीतिसे सब जगह जान लेना। ... ... .
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