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[ द्रव्यानुभव - रत्नाकर।
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उन्होंने क्या शुद्ध व्यवहार किया। देखो कि जिस वक्त श्री ऋषभदेव स्वामीको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ उस वक्त भर्त महाराजने आकर श्रीमरू देवी मातासे कहा कि हे माताजी आपके पुत्र श्री ऋषभदेव स्वामीजी पधारे हैं । सो मेरेको आप रोजीना उलाहना देती थीं सो आज चलो। ऐसा कहकर श्री मरु देवी माताको हाथी पर बिठाकर चले और रास्ते में देवता देवी अथवा मनुष्योंका कोलाहल सुनकर उनकी माता भर्त महाराजसे कहने लगीं कि हे पुत्र ! यह कोलाहल किसका है । तब भर्त महाराज बोले कि हे माताजो!
आपके पुत्र श्री ऋषभदेव स्वामी की सेवामें देवी देवता मनुष्यादि आते हैं सो आप आँखे खोलकर देखो कि आपके पुत्र कैसी शोभा संयुक्त बिराजमान हैं । उस वक्त मरु देवी माताजीने अपने हाथोंसे अपनी आंखोंको मला। मलनेसे आँखोंमें जो धुन्धका पटल था सो दूर हुआ और श्रीऋषभदेव स्वामी को रचनाको यथावत देखकर जो मोहनी कर्म अज्ञान दशाका जो पुद्गलीक दलिया संयोग सम्बन्धले तदात्मभाव करके खीर नीरकी तरहसे मिला हुआ था उस को पृथक करनेके वास्ते शुद्ध व्यवहार परिणाममें प्रवृत हुई। किस रीतिसे विवेचन करती हुई पृथक अर्थात् जुदा करने लगी कि रे मैं तो इस पुत्रके ताई दुख करती २ आँखोसे अन्धी होगई और इस पुत्रने मेरेको कहलाकर इतना भी न भेजा कि हे माता मैं खुशी हूं। तुम किसी बातकी चिन्ता मत करना । सो कौन किसका पुत्र है और कौन किसकी माता, और मैंने एक तरफका ही स्नेह करके आंखों को गँवाया, यहतो निःस्नेह है, इसलिये मेरेको भी इससे स्नेह करना वृथा है। मेरी आत्मा एक है। मेरा कोई नहीं, मैं किसीकी नहीं, इत्यादि अनेक रीतिले जो अपनी आत्माके संग ज्ञाना वरणादि कर्म संयोग सम्बन्धसे तदात्मभावसे आत्म प्रदेशोंसे मिले हुये थे उनको पृथक ( जुदा ) करनेका शुद्ध व्यवहार किया । तब निर्मल अर्थात् पुद्गलरूपी मल करके रहित अपने आत्म प्रदेशको शद्ध करके केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्रगट करके मोक्षको प्राप्त हुई । इसलिये हे भोले
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