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द्रव्यानुभव-रत्नाकर
जैन धर्मका दास हूं, संयम किंचित् लेश। भांड चेष्टा को करत हूं, भरता पेट हमेश ॥ १३ ॥ जिन वाणी गंभीर है, आशय अति गंभीर । अल्प बुद्धि मैं बाल हूं, सुनियो जिन आगम धीर ॥ १४ ॥ बुद्धिभ्रमसे जो कछु, जिन बाणी विपरीत । मिथ्या दुष्कृत देत हूं, मन बच काय समीत ॥ १५ ॥
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इति श्रीजैनधर्माचार्य महामुनि श्रीचिदानंदस्वामि विरचितः
श्रीद्रव्य-अनुभव-रत्नाकरनामा ग्रन्थः समाप्तः ॥ :
समाप्त ।
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