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__ [द्रव्यानुभव-रत्नाकर सो विरूद्ध नहीं और मानस
१०] इस रीतिसे गीता वचनका अर्थ है सो विरूद्ध नही ज्ञानका विषय ब्रह्म नहीं है, यह कहनेका भी अभिप्राय ऐस शम-दम आदि संस्कार रहित विक्षिप्त मनसे उत्पन्न होनेवाल विषय ब्रह्म नहीं है । और मानसज्ञानकीफल-व्याप्यता ब्रह्म विषय नई क्योंकि वृत्तिमें चिदाभास्य फल कहा है, तिल का विषय ब्रह्म नहीं है क्योंकि घटादिक अनआत्म पदार्थको वृत्ति प्राप्ति होती है तिस जगह वत्ति और चिदाभास्य दोनोंके व्याप्य कहिये विषय पदार्थ होता है और ब्रह्म आकार वृत्तिमें व्याप्य कहिये विषय ब्रह्म नहीं है। जैसे मनकी विषयता ब्रह्म-विषय-निषेधकरी है तैसे ही शब्दकी विषयता भी निषेधकरी है। क्योंकि देखो-"इतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा” यह निषेध वचन है। इसलिये शब्द-जन्य ज्ञानका विषय भी ब्रह्म नहीं है। ऐसा अर्थ अंगीकार होय तो महावाक्य भी शब्दरूपही है। सो तिससे उत्पन्न हुए ज्ञानका भी विषय ब्रह्म नहीं हो सकेगा और सिद्धांतका भी अंग होजायगा । इसलिये निषेध वचनका ऐसा अर्थ है कि शब्दकी शक्ति-वृत्ति-जन्य ज्ञानका विषय ब्रह्म नहीं है, किन्तु शब्दकी लक्षणा-वृत्ति-ज्ञानका विषय ब्रह्म है तैसा ही लक्षणा-वृत्ति-जन्य ज्ञानमें भी चिदाभास्य रूप फलका विषय ब्रह्म नही है, किन्तु आवर्ण-भंगरूप-वृत्तिमात्रकी विषयता ब्रह्म विषय है। जैस शब्द-जन्य ज्ञानकी विषयताका सर्वथा निषेध नहीं है, तैसे ही मानस की विषयताका भी सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु संस्कार राह भ्रमज्ञानमें हेतुता नहीं और मानसज्ञानमें जो चिदाभास्य अंश है विषयता नहीं है। कदाचित् ऐसा कोई कहे कि भ्रमज्ञानमें मनक है, तो दो प्रमाण जन्य ब्रह्मज्ञान कहना पडेगा, क्योंकि महावाक्यम की कारणता तो भाष्यकारादिकने भी सर्वत्र प्रतिपादन के का तो निषेध होय नहीं और मनकीभी कारणता कहे ता श्माण कहे हैं; इसलिये ब्रह्म-प्रमाके शब्द और मन दा जायंगे, सो दूष्ट-विरुद्ध है, क्योंकि चाक्षुषादिक प्रमाके * एक ही प्रमाण हैं। किसी प्रमाके हेतु दो प्रमाण देखें सुन यायिक भी चाक्षुषमादिक प्रमामें मनकोसहकारी मान
मनकी
चिदाभास्य अंश हैं जिसकी भ्रमज्ञानमें मनको कारणता
प्रतिपादन करी हैं, तिस 'ता कहे तो प्रमाका करण
मन दो प्रमाण सिद्ध हो कशमाके नेत्र आदिक एक
देखे सुने नहीं है, क्योंकि
गरी मानते हैं, प्रमाण तो
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