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ग्रन्थकार की जीवनी |
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उपद्रवों का वर्णन क्या करू ? एक दृष्टान्त देकर समझाता हूं कि * *
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इन उपद्रवोंसे मेरा पिछला ध्यानादि तो कम होता गया और आर्त-ध्यानादि अधिक होता रहा। आर्त-ध्यान होनेसे मेरी ध्यान आदि पुजी भी कम होती गई, उससे भी मेरा चित्त बिगड़ता गया । क्योंकि देखो - जो जन धन पैदा करता है और उसका धन जब छीज जाता है तब उसको अनेक तरह के विकल्प ऊठते हैं। इसी रीतिसे मेरे चित्तमें भी हमेशां इन बातोंका विचार होता रहा कि मैंने जिस कामके लिये घर छोड़ा सो तो होता नहीं किन्तु आर्त-ध्यान से दुर्गतिका बन्धहेतु दीखता है। क्योंकि मैं अपने चित्तमें ऐसा विचार करता हूं कि मेरी जाति में आज तक किसीने सिर मुंडायकर साधुपना न अङ्गीकार किया और मैंने यह काम किया तो लौकिक अज्ञान- दशामें तो लोगों में ऐसा जाहिर हुआ कि 'फलानेके बेटे फलाने को रोजगार हाल करना न आया इससे और बहन बेटियोंके लेने देनेके डरसे सिर मुंड़ाकर साधु हो गया' । लोगों का यह कहना मेरे आत्म-गुण प्रकट न होनेसे ठीक ही दीखता है । क्योंकि देखो किसीने एक शेर कहा हैं
“ आहके करनेसे, हौल दिल पैदा हुआ । एक तो इज्जत गई, दूजे न सोदा हुआ । ऐसा भी कहते हैं
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" दोनों खोई रे जोगना, मुद्रा और अदिश
- इस रीतिके अनेक ख्याल मेरे दिल में पैदा होते हैं । और वर्तमान कालमें सिवाय उपद्रवके सहायता देनेवाला नही मिलता **** इस वास्ते मैं कहता हूं कि मेरे में साधुपना नहीं है । "
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“शङ्का - अजी महाराज साहब, इस बातको हमने लिख तो दिया, परन्तु अब हमारा हाथ आगेको नही चलता और हमारे दिलमें ताज्जुब होता है और आपसे अर्ज करते हैं सो आप सुनकर पोछे फरमावेंगे सो लिखेंगे। सो हमारी अर्ज यह है कि आप की वृत्ति लोगोंमें प्रसिद्ध है, और हम प्रत्यक्ष आखोंसे देखते हैं कि आप एक बख्त गृहस्थके घरमें आहार लेने को जाते हो, और पानी भी उसी समय आहारके साथ लाते हो, और
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