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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[ १६७ जन। इसलिये न्याय मतमें विशेषणके अभाव वालेमें विशेषण है
सी पतीतिको भ्रम या अयथार्थ ज्ञान कहते हैं । इसीका नाम अन्यथाज्याति भी है। इस भ्रम ज्ञानमें बहुत सूक्ष्म, क्लिष्ट, विवेक-शून्य विचार
याख्यातिवाद नामक ग्रन्थमें चक्रवर्तिभट्टाचार्य, गदाधर भट्टाचार्यने लिखा है। सो ग्रंथ बढजानेके भयसे और न्यायमतको बोलीमें क्लिष्ट पदों की भरमार होनेसे जिज्ञासु को अनुपयोगी जान करके विस्तारसे नहीं लिखाते हैं। इस रीतिसे न्यायमतमें सर्पादि भ्रमके विषय रजु आदिक है, सादिक नहीं। और प्रत्यक्ष रूप भ्रम-ज्ञान भी इन्द्रिय
इसरीतिसे इन न्याय मतवाले आचार्योंने आपसमें ही अनेक तरहके जुदे २ संदेह उठाकर जुदे २ ग्रन्थ रंचकर जिज्ञासुओंको भुम जालमें गेरा, इनके इन्दिय-जन्य प्रत्यक्ष ज्ञानमें न हुआ नीवेडा, केवल क्लिष्ट शब्दोंको रचकर बोली बोलने का ही भम जाल फेरा: जो इन ग्रन्थोंको पढ़े और तर्क करे तो उमर तक कदापि न आवे आत्म ज्ञान नेडा, ऐसी जब इनकी पोल देखी तब बेदान्तियोंने अपना किया जुदा डेरा; सो उनका भी किञ्चित् भावार्थ दिखानेमें हुआ दिल मेरा ।
इसलिये वेदान्त शास्त्रकी रीतिसे लिखाते हैं कि-सर्पभ्रमका विषय रत्नु नहीं है, किन्तु अनिर्वचनीय सर्प है, ओर भ्रमज्ञान इन्द्रिय-जन्य ही नहीं है। और न्यामतमें जैसेसर्व ज्ञानोंका आश्रय आत्मा है तैसा वेदान्त, मतमें आत्मा आश्रय नहीं है, किन्तु ज्ञानका उपादानकारण अंतःकरण है इसलिये अन्तःकरण आश्रय है। और जो न्यायमतमें सुखादिक आत्मा के गुण कहे हैं, वे भी सर्व वेदान्त सिद्धान्तमें अन्तःकरण के परिणाम हैं, इसलिये अन्तःकरणके धर्म हैं, आत्माके नहीं। परन्तु भ्रमशान अन्तःकरणका परिणाम नहीं है किन्तु अविद्याका परिणाम है । लाइन वेदान्तीयोंका इनके शास्त्रके अनुसार भ्रमज्ञानका संक्षेपसे स्वरूप दिखाते है:-सर्प-संस्कार-सहित पुरुषके दोष-सहित नेत्रका रजुसे सम्बन्ध होता है, तब रज का विशेष धर्म रज्जुत्व भासे नहीं, भार रज्जुमे जो मुंजरूप अवयव है लोभासे नहीं, किन्तु रज में सामान्य
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