________________
ग्रन्थकार की जीवनी। पूर्वक यह वासक्षेप कर दे। उसी मुजब मैंने जाकरघासक्षेप कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि जितने आदमी प्रतिष्ठा-महोत्सव पर आये थे सबको भोजन करा दिया। और जो दश मन शक्करकी सामग्री की गई थी वह भण्डारमें ऐसी ही पड़ी रही। तब महाराज की आज्ञासे दूसरे दिन षड्दर्शनवालों को भोजन कराया गया। यह बात हजारों मनुष्य जो वहां उपस्थित थे, जानकर अत्यन्त आश्चर्यमग्न हुए। यह वृत्तान्त मेरे सन्मुख हुआ इससे लिख दिया है। __ बाद महाराज साहब जावरे पधारे वहां चौमासा किया और अनेक भव्य जीवोंको उपदेश देकर प्रतिबोध दिया। कई तीन-थुई के पन्थवालो को शुद्ध धर्म में लाये । फिर वहांसे रतलाम पधारे। वहां शरीरमें असाता-वेदनीय का उदय होनेसे दो चतुर्मास किये। फिर तकलीफ वढ़नेसे सं० १६५६ के मार्गशिर शुक्ल १४ को मेरे पास रतलामसे मेरे एक मित्रका पत्र आया ( उस वक्त मैं रियासत उदयपुर दरबार के यहां मुलाजिम था ), जिसमें लिखा था कि श्री चिदानन्दजी महाराज ने फरमाया है कि, अब हमारा आयु-कर्म बहुत थोडा बाकी है, सो तेरेको अवकाश होय तो अवसर देख लेना। इस पत्रके आनेसे मैं श्रीमान् महाराना साहेब से ६ रोजकी छुट्टी लेकर रतलाम गया और श्रीमहाराजके दर्शन कीये। उस बखत मेरे चित्तको जो खेद हुवा उसका वर्णन लेखनी द्वारा नही कर सकता, क्योंकि मेरेको शद्ध जैनधर्मकी प्राप्ति श्रीमहाराजके ही अनुग्रहसे हुई है। परन्तु कालचक्रके आगे किसीका जोर नहीं चलता | महाराज साहबने मेरेको धैर्य बन्धाया और धर्मोपदेश देकर शान्त किया । मैं पराधीन था इसलिये पोछा उदयपुर चला आया। बादमें महाराज साहबके बिमारीकी वृद्धि होने लगी सो जावरेके श्रावक रतलाम आयकर पालकीमें जावरे ले गये। वहां सम्बत्.१९५६ का पोस कृष्ण : सोमवार को फजर में १० बजे श्रीचिदानन्द स्वामीका स्वर्गवास हो गया। उसके स्वर्गवास होनेका समाचार उदेपुर आनेसे जो कुछ दुःख मुझे हुवा, वह मेरी आत्मा जानती है। क्योंकि इस पंचमकालमें प्रवृत्ति मार्ग बिगड जानेसे
Scanned by CamScanner