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[ द्रव्यानुभव - रत्नाकर
लगा कि गुण तो अनेक हैं परन्तु सबं गुणोंमें मुख्य ज्ञान, दर्शन-स्वयं प्रकाश है, इसलिये एवंभूतनयवाला कहने लगा कि मैं ज्ञान दर्शनमें रहीं हैं। क्योंकि ज्ञानसेही सब कुछ जाना जाता है, बिना ज्ञान के कुछ मालूम नहीं होता, इसलिये ज्ञान दर्शनको ही मुख्य मानकर उसमें वसना कहा। इस अभिप्राय से इन तीनों नयवालोंने अपने अभिप्राय से जुदा २ कहा । क्योंकि पीछे हम नयके अभिप्राय में कह आये हैं कि-नय है सो एक अंशको लेकर अन्य अंगोंसे उदासपने रहे और उन अंशोंको निषेध न करे उसी का नाम नय है । इस अभिप्रायसे तीनों को एक कहना नहीं बनता, किन्तु जुदा २ प्रयोजन है । इस रीति से सिद्धान्तके रहस्य को जान, सद्गुरूके उपदेश को मान, मतकर खे वातान, जिससे होय तेरा कल्यान, भगवतकी धरो सिरपर आन, जिससे होय तेरेको जिनमतका यथावत् ज्ञान, तिससे अध्यात्मं रसका करे तूं पान, इस रीति से सद्गुरूके बचनों को मान, जिससे उगे तेरे हृदय कमल में भान । इस रीतिसे मेरी बुद्धि अनुसार किंचित् अभिप्राय कहा ।
तब व्यवहार
अब एक प्रदेशको अंगीकार करके सात (७) नय उतारे हैं कि कोई पुरुष एक प्रदेश मात्र क्षेत्रको अंगीकार करके पूछने लगा कि यह प्रदेश किसका है ? उस वक्त नैगमनयवाला कहने लगा कि यह प्रदेश छओं द्रव्य का है, क्योंकि एक आकाश प्रदेशमें छओ द्रव्य रहते हैं, इसलिये छओ द्रव्य इकट्ठे हैं । तब संग्रहनयवाला कहने लगा कि काल तो अप्रदेशी है, क्योंकि सर्व लोक में काल एक समय बर्त्ते है सो आकाश प्रदेशमें जुदा २ नहीं, इसलिये पांचका है छः का नहीं । नयवाला कहने लगा कि जिस द्रव्यका मुख्य प्रदेश दीखे उसी द्रव्यका प्रदेश है, इसलिये सब द्रव्योंका नहीं । तब ऋजुसूत्र - नयवाला कहने लगा कि जिस द्रव्यका उपयोग दे करके पूछे, उसी द्रव्यका प्रदेश है, क्योंकि जो धर्मास्तिकायका उपयोग देकरके पूछे तो धर्मास्तिकायका प्रदेश है, अथवा अधर्मास्तिकायका उपयोग देकर पूछे तो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश कहे । तब शब्द नयवाला बोला कि जिस द्रव्यका नाम लेकर पूछे उसी द्रव्यका प्रदेश कहना । तब समभिरूदनयवाला
'कहने
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