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________________ ६४ श्रीवीतरागस्तोत्रम् फल प्राप्त कर सकें? इस तरह कोई शंका करे तो उसका कहना अयोग्य है, कारण कि चिन्तामणि रत्नादि विशिष्ट चेतनारहित ऐसे पदार्थ क्या फलीभूत नहीं होते हैं ? अर्थात् चेतनारहित पदार्थ किसी पर प्रसन्न ही नहीं होते, तो भी उनका विधिपूर्वक आराधना करने से उसका फल प्राप्त होता है, उसी तरह वीतराग भी फल देने वाले कहलाते हैं । (३) वीतराग ! सपर्यात-स्तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥४॥ ___अर्थ - हे वीतराग ! आपकी सेवा (पूजा) से आपकी आज्ञा का पालन करना वह भावस्तव रूप होने से उत्कृष्ट फल को देने वाली है, क्योंकि आपकी आज्ञा की आराधना मोक्ष के लिये है और आपकी आज्ञाकी विराधना संसार के लिये है। (४) आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा । आश्रवः सर्वथा हेय, उपादेयश्च संवरः ॥५॥ अर्थ - [हे प्रभो !] हेय (त्याग करने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) स्वरूप वाली ऐसी आपकी आज्ञा सर्वदा एक ही समान रहती है। वह कषाय, विषय, प्रमाद इत्यादि स्वरूपवाला आश्रव तत्त्व सर्व प्रकार से हेयत्याग करने योग्य है तथा सत्य, शौच, क्षमा इत्यादि स्वरूपवाला संवर तत्त्व सर्व प्रकार से उपादेय-ग्रहण करने योग्य है। (५)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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