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________________ ५४ श्रीवीतरागस्तोत्रम् षोडशः प्रकाशः त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः शमरसोर्मयः । पराणयन्ति मां नाथ !, परमानन्दसम्पदम् ॥१॥ अर्थ हे नाथ ! एक तरफ आपके मतरूपी (आम्ररूपी) अमृत के पान से उत्पन्न हुए समतारूपी रस की तरङ्गे मुझे परमानन्द की लक्ष्मी को प्राप्त कराते हैं । (१) — इतश्चानादिसंस्कार-मूच्छितो मूर्च्छयत्यलम् । रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥ अर्थ तथा दूसरी तरफ अनादि काल के भवभ्रमण के संस्कार से उत्पन्न रागरूपी सर्प के विष का वेग मुझे अति मूर्छा प्राप्त करातो हैं । (अर्थात् सत्यज्ञान से रहित कर देता है), इसलिये हत हुई आशावाला मैं क्या करूँ ? । (२) रागाहिगरलाघ्रातोऽकार्षं यत्कर्मवैशसम् । तद् वक्तुमप्यशक्तोऽस्मि, धिग्मे प्रच्छन्नप्रापताम् ? ॥३॥ अर्थ - [हे प्रभु !] रागरूपी सर्प के विष से व्याप्त मैंने जो अयोग्य कृत्य-कार्य किया है, वह आपके पास कहने के लिये भी मैं असमर्थ हूँ । उससे मेरा प्रच्छन्न अर्थात् गुप्त पाप करनेवाले मुझको धिक्कार है । (३) क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः, क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी । मोहाद्यैः क्रीडयैवाऽहं, कारितः कपिचापलम् ॥४॥
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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