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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् त्रयोदश प्रकाशः अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥ १ ॥ अर्थ - [हे वीतराग देव !] मुक्तिपुरी के मार्ग में जाने वाले प्राणियों को आप बिना बोले ही सहायकारक हो, आपकारण बिना ही हितकारक हो, आप प्रार्थना किये बिना ही साधु अर्थात् पर का कार्य करने वाले हो, तथा आप सम्बन्ध बिना ही बान्धव हो । (१) अनक्तस्निग्धमनस-ममृजोज्ज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥ 1 ४३ अर्थ - ममतारूपी स्नेह द्वारा स्निग्ध नहीं होते हुए भी स्निग्ध मन वाले, मार्जन किये बिना ही उज्ज्वल वाणी को बोलने वाले, धोये बिना ही निर्मल शीलवाले और वैसा करके ही शरण करने लायक ऐसे आपकी मैं शरण में रहता हूँ । (२) अचण्डवीरवृत्तिना, शमिना शमवर्त्तिना । त्वया काममकुट्यन्त, कुटिलाः कर्मकण्टकाः ॥३॥ अर्थ - क्रोध बिना ही वीरव्रतवाले, संमतावाले और समता में व्यवहार करनेवाले ऐसे आपने कुटिल कर्मरूपी कण्टकों का विनाश किया है । (३) अभवाय महेशायाऽगदाय नरकच्छिदे | अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मैचिद् भवते नमः ॥४॥
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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