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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् एकादश प्रकाशः निजन्परीषहचमू-मुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥१॥ अर्थ - [हे वीतराग विभो !] आप परीषहों की सेना (श्रेणि) को विनाश करते हुए और उपसर्गों को दूर फेंकते हुए, समतारूप अमृत की तृप्ति को प्राप्त कर चुके हैं, उससे महापुरुषों की चतुराई अद्भुत ही होती है। (१) अरक्तो भुक्तवान् मुक्ति-मद्विष्टोहतवान्द्विषः। अहो ! महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः ? ॥२॥ अर्थ - [हे वीतराग देव !] आपने रागरहित होते हुए मुक्तिरूपी नारी का संगम किया है और द्वेषरहित होते हुए कषायादि शत्रुओं का विनाश किया है । अहो ! लोक में दुर्लभ ऐसे महात्माओं की महिमा अद्भुत ही है। (२) सर्वथा निर्जिगीषेण, भीतभीतेन चागसः । त्वया जगत्त्रयं जिग्ये, महतां काऽपि चातुरी ॥३॥ अर्थ - [हे प्रभु !] समस्त प्रकार से शत्रु को जीतने की इच्छा से रहित और पाप से अत्यन्त भय पाये हुए भी आपने (स्वर्ग-मृत्यु-पाताल) तीनों जगत को जीत लिया है, ऐसे महापुरुषों की चतुराई अद्भुत ही है । (३) दत्तं न किञ्चित् कस्मैचिन्नात्तं किञ्चित्कुतश्चन । प्रभुत्वं ते तथाप्येतत्कला कापि विपश्चिताम् ॥४॥ अर्थ - [हे प्रभो !] आप ने किसी को कोई प्रामादि नहीं दिया तथा किसी के पास से कोई दण्डादि नहीं लिया।
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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