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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ३५ दशम प्रकाश: मत्त्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योन्याश्रयंभिन्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥ १ ॥ अर्थ - हे भगवन् ! मेरे मन की प्रसन्नता से आपकी प्रसन्नता (कृपा) मेरे ऊपर होती है। और आपके प्रसाद से मेरे मन की प्रसन्नता ( निर्मलता ) होती है इस तरह उत्पन्न होते हुए अन्योन्याश्रय दोष को आप नाश करें और मेरे ऊपर आप प्रसन्न रहों । (१) निरीक्षितुं रूपलक्ष्मीं, सहस्त्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन् ! सहस्त्रजिह्वोऽपि शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥२॥ , अर्थ - हे स्वामिन्! आपकी रूपलक्ष्मी अर्थात् रूपशोभा को यथार्थ रूप से देखने के लिये एक हजार नेत्रोंवाला इन्द्र भी समर्थ नहीं है, और आपके गुण गाने के लिये एक हजार जिह्वावाला शेषनाग भी समर्थ नहीं है । (२) संशयान् नाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामपि । अतः परोऽपि किं कोऽपि गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः ? ॥३ ॥ , अर्थ - हे नाथ ! आप यहाँ रहते हुए ही अनुत्तर विमान में रहनेवाले देवों के भी संशयों को हरते हो अर्थात् दूर करते हो, तो क्या इससे अन्य वस्तुतः (परमार्थ से) स्तुति करने योग्य कोई भी गुण है ? अर्थात् नहीं है । (३)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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