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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
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वर्णवाली) वस्तु में प्रत्यक्ष देखे जाते हैं । (७) विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥८॥
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अर्थ - विज्ञान (ज्ञान) का एक ही स्वरूप है और वह घटादि के विचित्र आकार से युक्त है, इस तरह इच्छा करते हुए प्राज्ञ ऐसे बौद्ध अनेकान्त - स्याद्वाद का उत्थापन नहीं कर सकते हैं । अर्थात्-एक स्वरूप वाले ज्ञान को विचित्र आकारवाला मानने से अनेकान्त मत मान्य ही किया ऐसा कहा जाता है । फिर भी उसको नहीं स्वीकार करनेवाला बौद्ध वास्तव में प्राज्ञ [प्र x अज्ञ - बड़ा अज्ञानी] है । (८) चित्रमेकमनेकं च, रूपं प्रामाणिकं वदन् ।
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योगो वैशेषिको वापि, नाऽनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥९॥
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अर्थ - एक ही रूप (घटादि) अनेक रूप (आकार) वाला है, वह प्रमाण सिद्ध है । इस तरह बोलनेवाले ऐसे नैयायिक और वैशेषिक मत वाले भी अनेकान्त - स्याद्वादमत का उत्थापन नहीं कर सकते हैं । (९) इच्छन्प्रधानं सत्त्वाद्यै-विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः । सांख्यः संख्यावतां मुख्यो, नाऽनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१०॥
अर्थ - विद्वानों में मुख्य ऐसे साङ्ख्यमत सत्त्वादि विरुद्ध गुण से युक्त प्रधान अर्थात् प्रकृति को इच्छा करते हैं, अर्थात् सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण यह त्रिगुणात्मकं प्रकृति है, इस तरह मानते हैं। वे तीनों गुण परस्पर विरुद्ध हैं । उसको एक ही