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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
अष्टम प्रकाशः सत्त्वस्यैकान्तनित्यत्वे, कृतनाशाकृतागमौ । स्यातामेकान्तनाशेऽपि, कृतनाशाकृतागमौ ॥१॥
अर्थ – हे प्रभो ! पदार्थ की एकान्त नित्यता मानने में कृतनाश (अर्थात् किया हुआ नाश) और अकृतागम (अर्थात् नहीं किये हुए की प्राप्ति) नामक दो दोष लगते हैं । तथा पदार्थ की एकान्त अनित्यता मानने में भी कृतनाश और अकृतागम नामक दो दोष लगते हैं । (१)
आत्मन्येकान्तनित्ये स्यान्न भोगः सुख-दुःखयोः । एकान्तानित्यरूपेऽपि, न भोगः सुख-दुःखयो ॥२॥
अर्थ - आत्मा को एकान्त नित्य मानने से सुख-दुःख का भोग नहीं घट सकता । और आत्मा को एकान्त अनित्य मानने से भी सुख-दुःख का भोग नहीं घटता । (२)
पुण्य-पापे बन्ध-मोक्षौ, न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्य-पापे बन्ध-मोक्षौ, नाऽनित्यैकान्तदर्शने ॥३॥
अर्थ - एकान्त नित्यपक्ष में पुण्य-पाप तथा बन्धमोक्ष सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार एकान्त अनित्यपक्ष में भी पुण्य-पाप तथा बन्ध-मोक्ष सम्भव नहीं होता । (३)
क्रमाऽक्रमाभ्यां नित्यानां, युज्यतेऽर्थक्रिया न हि। एकान्तक्षणिकत्वेऽपि, युज्यतेऽर्थक्रिया न हि ॥४॥ अर्थ- जीव-अजीवादि पदार्थों को एकान्त नित्य मानें तो