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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - [ हे प्रभो !] वह लवसत्तम (अनुत्तर -विमानवासी) देव भी आपके योग की स्पृहा करते हैं । तो योगमुद्राएँ (रजोहरणादि के) रहित ऐसे अन्य दर्शनियों को वह योग मार्ग की कथा कहाँ से होगी ? अर्थात् नहीं हो। ( ४ ) २२ त्वां प्रपद्यामहे नाथं, त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता, किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥५॥ अर्थ - हे नाथ ! हम आपको स्वीकार करते हैं । आपकी स्तुति करते हैं, आपकी उपासना (सेवा) करते हैं, आप के अलावा अन्य कोई (देवादि) रक्षक नहीं हैं। इससे अधिक हम क्या बोलें ? क्या करें ? । (५) स्वयं मलीमसाचारै:, प्रतारणपरैः परैः । वंच्यते जगदप्येतत्, कस्य पूत्कुर्म हे पुरः ? ॥६॥ अर्थ - स्वयं मलिन आचार वाले और अन्य को ठगने में तत्पर ऐसे अन्य देव इस समस्त विश्व को ठगते हैं । अतः हे नाथ ! अब हम किसके पास जाकर पुकार करें ? । (६) नित्यमुक्ताञ्जगज्जन्म-क्षेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान् को देवांश्चेतनः श्रयेत् ॥७॥ अर्थ - निरन्तर मुक्त तथा विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने में उद्यमवन्त ऐसे वन्ध्या पुत्र के समान देवों को कौन चेतनावन्त प्राणी आश्रय करे ? [देव स्वरूपे मानें ? अर्थात् न मानें] । (७)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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