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________________ तत्त्वार्थ सूत्र ४६ दुस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश और अपयश तथा तीर्थंकर नाम ये नाम कर्म के ४२ भेद हैं । उच्चै-र्नीचैश्च ॥१३॥ अर्थ – उच्चगोत्र और नीचगोत्र - ये दो गोत्रकर्म के भेद हैं । दानादीनाम् ॥१४॥ अर्थ - दान आदि ( अन्तराय कर्म के भेद ) हैं । आदितस्तिसृणा-मन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम कोटीकोटयः परा स्थितिः ॥ १५ ॥ सप्तति - महनीयस्य ॥१६॥ नामगोत्रयो- र्विंशतिः ॥१७॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्या -ऽऽयुष्कस्य ॥१८॥ अपराद्वादश- मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१९॥ नामगोत्रयो - रष्टौ ॥२०॥ शेषाणा - मन्तर्मुहूर्तम् ॥२१॥ अर्थ - आदि अर्थात् प्रथम के तीन ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अंतराय इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम है ।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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