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________________ ४४ तत्त्वार्थ सूत्र नव, दो, अट्ठावीस, चार, बयालीस, दो और पाँच भेद हैं । मत्यादीनाम् ॥७॥ अर्थ - मति आदि पाँच ज्ञानों का आवरण करने वाले कर्म पाँच ज्ञानावरण हैं। चक्षु-रचक्षु-रवधि-केवलानां-निद्रा-निद्रानिद्राप्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यानद्धि-वेदनीयानि च ॥८॥ अर्थ - चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल - ये चार आवरण रूप तथा निद्रा, निद्रा-निद्रा प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि इन पाँचों का वेदनः इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेद हैं। सदसद्वेद्ये ॥९॥ अर्थ – सातावेदनीय और असातावेदनीय – ये वेदनीय कर्म के दो भेद हैं। दर्शन-चारित्रमोहनीय-कषाय-नोकषाय-वेदनीयाख्यास्त्रि-द्वि-षोडश-नवभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्वतदुभयानि, कषाय-नोकषायावनन्तानुबन्ध्य-प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरण-संज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोध-मानमाया-लोभा-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुंनपुंसकवेदाः ॥१०॥ अर्थ - मोहनीय कर्म के उत्तरभेद दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय के क्रम से तीन, दो, सोलह और नौ भेद हैं।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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