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________________ ३४ तत्त्वार्थ सूत्र वेदनीय कर्म का आस्रव होता है। भूत-व्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमाऽऽदि-योगः क्षान्तिः शौच-मिति सद्वेद्यस्य ॥१३॥ अर्थ - प्राणी-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सरागसंयम आदि योग, क्षमा और शौच से सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है। केवली-श्रुत-संघ-धर्म-देवा-ऽवर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१४॥ अर्थ - केवली, जिनागम, संघ, धर्म और देवों पर मिथ्यादोषारोपण करने से दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है। __ कषायोदयात् तीव्रा-ऽऽत्म-परिणामश्चारित्र मोहस्य ॥१५॥ अर्थ - कषाय के उदय से होने वाले आत्मा के तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय के आस्रव होते हैं। बह्वारंभ परिग्रहत्वं च नरकास्याऽऽयुषः ॥१६॥ अर्थ - बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के भाव नरकायु के आस्रव के कारण हैं। माया तैर्यग्योनस्य ॥१७॥ अर्थ - माया से तिर्यंचायु का बंध होता है । अल्पा-ऽऽरम्भ-परिग्रहत्वं स्वभाव-मार्दवा-ऽऽर्जवं च मानुषस्य ॥१८॥
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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