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अध्यात्मकल्पद्रुम
से किसी एक को ग्रहण कर ।" सह तपोयमसंयमयन्त्रणां स्ववशतासहने हि गुणो महान् । परवशस्त्वति भूरि सहिष्यसे,
न च गुणं बहुमाप्स्यसि कञ्चन ॥३५॥ अर्थ - "तू तप, यम और संयम की नियंत्रणा को सहन कर । स्ववश रहकर ( परीषहादि का दुःख) सहन करना अधिक उत्तम है, परवश होने पर तो अनेकों कठिन दुःख उठाने पड़ेंगे और वे सब निष्फल होंगे ।" अणीयसा साम्यनियन्त्रणाभुवा, मुनेत्र कष्टेन चरित्रजेन च । यदि क्षयो दुर्गतिगर्भवासगाऽ
सुखावलेस्तत्किमवापि नार्थितम् ? ॥ ३६ ॥ अर्थ - " समता से और नियंत्रणा (परीषह सहन) से होनेवाले थोड़े से कष्ट द्वारा अथवा चारित्रपालन के थोड़े से कष्ट द्वारा यदि दुर्गति में जाने की और गर्भावास में रहने के दुःख की परंपरा का नाश हो जाता हो तो फिर तूने कौन सी इच्छित वस्तु को नहीं पाया ?"
त्यज स्पृहां स्व: शिवशर्मलाभे,
स्वीकृत्य तिर्यङ्नरकादिदुःखम् ।
सुखाणुभिश्चेद्विषयादिजातैः,
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संतोष्यसे संयमकष्टभीरुः ॥३७॥