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अध्यात्मकल्पद्रुम
यति ! तू तेरी सर्व इष्ट वस्तु प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है और संयम के लिये प्रयत्न नहीं करता है, तो फिर तेरी क्या दशा होगी ? ।" आराधितो वा गुणवान् स्वयं तरन्,
भवाब्धिमस्मानपि तारयिष्यति । श्रयन्ति ये त्वामिति भूरिभक्तिभिः, ___ फलं तवैषां च किमस्ति निर्गुण ! ॥१४॥
अर्थ - "इस गुणवान पुरुष की आराधना करने से जैसे यह स्वयं भवसमुद्र से तैरता है वैसे ही हमें भी तैरा देगा ऐसा समझकर कितने ही प्राणी भक्तिभाव से तेरा आश्रय लेते हैं । इससे हे निर्गुण ! तुझे और उन्हें क्या लाभ है ?" स्वयं प्रमादैनिपतन् भवाम्बुधौ,
कथं स्वभक्तानपि तारयिष्यसि । प्रतारयन् स्वार्थमृजून् शिवार्थिनः, __ स्वतोऽन्यतश्चैव विलुप्यसेंऽहसा ॥१५॥
अर्थ - "जब तू स्वयं प्रमाद के कारण संसारसमुद्र में डूबता जाता है तो फिर तू अपने भक्तों को किस प्रकार तैरा सकता है ? बेचारे मोक्षार्थी सरल जीवों को तू अपने स्वार्थवश ठगकर अपने और दूसरों के द्वारा पापों में तु स्वयं लिप्त होता है।"