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अध्यात्मकल्पद्रुम
माता पिता स्वः सुगुरुश्च तत्त्वा
त्प्रबोध्य यो योजति शुद्धधर्मे । न तत्समोऽरिः क्षिपते भवाब्धौ,
यो धर्मविघ्नादिकृतेश्च जीवम् ॥१०॥ अर्थ - "जो धर्म का बोध कराकर शुद्ध धर्म में लगाएँ वे ही तत्त्व से सच्चे माता-पिता हैं, वे ही सचमुच हमारे हितैषी हैं और उन्हीं को सुगुरु समझें । जो इस जीव को सुकृत्य अथवा धर्म के विषय में अन्तराय करके संसारसमुद्र में फेंक देते हैं उनके समान कोई वैरी नहीं है।" दाक्षिण्यलज्जे गुरुदेवपूजा,
पित्रादिभक्तिः सुकृताभिलाषः । परोपकारव्यवहारशुद्धी,
नृणामीहामुत्र च संपदे स्युः ॥११॥ अर्थ - "दाक्षिण्य, लज्जा, गुरु और देवपूजा, मातापिता आदि बडों की भक्ति, उत्तम कार्य करने की अभिलाषा, परोपकार और व्यवहारशुद्धि मनुष्य को इस भव तथा परभव में संपत्ति प्रदान करते हैं।" जिनेष्वभक्तिर्यमिनामवज्ञा,
कर्मस्वनौचित्यमधर्मसङ्गः । पित्राद्युपेक्षा परवञ्चनं च,
सृजन्ति पुंसां विपदः समन्तात् ॥१२॥